मेरे विचारसे मुसलमानों और हिंदुओंका विशाल बहुमत मुसलमानोंकी धार्मिक भावनाके सम्मानके निमित्त तथा मन्त्रियोंके वचनोंको पूरा करानेके उद्देश्य से छेड़े जानेवाले इस महान् और न्यायसम्मत आन्दोलनके साथ है। आप भरोसा रखें कि यहाँ जो-कुछ भी सम्भव है सब किया जा रहा है। मुझे तनिक भी सन्देह नहीं कि अगर हम अपनी सहायता आप करेंगे तो इस महान् अनुष्ठानमें ईश्वर हमारी सहायता अवश्य करेगा।
यंग इंडिया, ७-७-१९२०
८. पत्र : अखबारोंको
[७ जुलाई, १९२० के पूर्व]
श्री गांधी लिखते हैं:
कहनेकी जरूरत नहीं कि नई कौंसिलोंके बहिष्कारके बारेमें मैं लाला लाजपतरायकी रायसे पूरी तरह सहमत हूँ। मेरे लिए तो वह असहयोगके ही कार्यक्रमका एक अंग है और चूँकि मुझे पंजाबका सवाल भी उतना ही चुभता है जितना कि खिलाफतका, इसलिए मैं लाला लाजपतरायकी सलाहका दुहरा स्वागत करता हूँ। कई जगहोंसे ऐसा सुझाव आया है कि सुधारोंसे हमारा असहयोग चुनावकी क्रिया पूरी हो चुकनेके बाद शुरू हो। लेकिन में यह कहे बिना नहीं रह सकता कि जब हम निश्चय ही इन कौंसिलोंकी कार्रवाई में भाग लेनेवाले नहीं है तब इस चुनावके नाटकमें भाग लेना और उसपर पैसा खर्च करना गलत होगा। इसके सिवा हमें जनताको शिक्षित करनेकी दिशामें भी काफी कार्य करना है। इसलिए यदि मेरी चले तो मैं तो देशको अपना ध्यान व्यर्थ ही चुनावोंमें न लगाने दूँ। अगर हम पहले चुनाव लड़ते हैं और फिर पदत्याग करते हैं तो सामान्य जनता असहयोगकी खूबी नहीं समझ सकेगी। दूसरी ओर मतदाताओंके लिए यह बहत बड़ी शिक्षा होगी कि वे किसीको भी न चुनें और जो भी उनसे मत माँगने आये उससे एक स्वरसे यह कह दें कि जबतक पंजाब और खिलाफतके सवालोंका सन्तोषप्रद निपटारा नहीं हो जाता तबतक अगर वह चुनावके लिए खड़ा होता है तो वह उनका प्रतिनिधि नहीं होगा। लेकिन मैं आशा करता हूँ कि लाला लाजपतराय [नये सुधारोंके अनुसार बननेवाली] नई कौंसिलोंके बहिष्कारसे ही सन्तुष्ट नहीं हो जायेंगे। अगर हम एक स्वाभिमानी राष्ट्र के रूपमें पहचाने जानेके इच्छुक हों तो हमें जरूरत होनेपर असहयोग-कार्यक्रमके चारों चरणोंपर अमल करना चाहिए। सवाल साफ है। खिलाफत और पंजाब, दोनों ही मामलोंमें सरकारने जो किया है, उससे स्पष्ट है कि साम्राज्यका सूत्र-संचालन करनेवाली परिषदोंमें भारतीयोंके मतको कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। यह बहुत ही अपमानजनक स्थिति