चाहिए! हिमालयपर चढ़नेके बाद वह भारतवर्षकी ओर मुँह करके खिलखिला उठेगा। मेरे पास बैठे मेरे भाई (मुहम्मद अली) इसे दुर्बलताका अस्त्र मानते हैं। उनकी धारणा सही हो अथवा गलत लेकिन मेरे विचारानुसार तो तलवारके न्यायका पदार्थ-पाठ भी इसीसे पढ़ा जा सकता है। मैंने भाई शौकत अलीसे कहा कि मुसलमानोंमें कुरबानी देनेकी ताकत नहीं है। मरनेकी ताकत आनेपर ही वे देख सकेंगे कि तलवारकी जरूरत नहीं है। तथापि जब आवश्यक जान पड़े तब आप प्रसन्नतासे तलवार निकाल सकते हैं। जिस साम्राज्यने इस्लामके साथ विश्वासघात किया है, जिसने भारतको पेटके बल रेंगनेको विवश किया है, भले ही एक ही व्यक्तिको इस तरह रेंगना पड़ा हो, जिसने भारतीय स्त्रियोंके बुरकोंको खींचा——पंजाबमें ऐसा ही हुआ——उस सरकारके साथ सहयोग हो ही कैसे सकता है? देश-भरमें चाहे कितनी ही पक्की सड़कें क्यों न बन जायें, देशमें चाहे कितनी ही शान्ति क्यों न हो, हम उनकी अपेक्षा खूनकी नदियाँ पसन्द करेंगे। भले ही रेलें न रहें, स्टीमर भी न रहें, सब तरहकी व्यवस्था खत्म हो जाये——मेरे लेखे तो ये सब वर्तमान स्थितिसे बेहतर हैं। मेरी भावनाओंको जितनी ठेस पहुँची है, अगर उतनी ही आपको भी पहुँची है तो माँ-बापके असहमत होनेपर भी विद्यार्थी स्कूलोंका परित्याग कर सकते हैं। एक विद्यार्थीके पिताने कहा कि राष्ट्रीय स्कूलकी स्थापना की गई है, वह कैसे चलता है——यह देखनेके बाद ही वे अपने बच्चेको वहाँ भेजेंगे। राष्ट्रीय स्कूलकी इस तरह परीक्षा करनेके बाद बच्चोंको सरकारी स्कूलोंसे उठा लेनेवाले माता-पिता देशकी स्वतन्त्रता-प्राप्तिमें सहायक सिद्ध नहीं होंगे। विद्या मिले अथवा न मिले, उसकी परवाह नहीं होनी चाहिए। किसी व्यक्तिको उसकी पराधीनावस्थामें आजादीकी बात सिखाई तो जा सकती है लेकिन उसे प्राप्त करनेकी विद्या कदापि नहीं सिखाई जा सकती। मैं जो-कुछ कह रहा हूँ, उसे अगर आप ठीक-ठीक समझ लेते हैं तो आपको सब-कुछ छोड़ देना चाहिए, बादमें सब-कुछ मिल जायेगा। यह विधिका विधान है कि जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक भक्ति करता है, उसे सब-कुछ मिल जाता है।
अगर सब विद्यार्थी सूरतके स्कूलोंसे निकल आयें तो उसका परिणाम कितना शुभ हो? उस समय तो प्रोफेसर और शिक्षक आपसे पूछने आयेंगे कि आप किन शर्तोंपर स्कूलोंमें आना चाहते हैं? आप कहना कि सरकारके साथ सम्बन्ध छोड़कर और उससे प्राप्त होनेवाली मदद न लेकर हम भिक्षा माँगकर भी स्कूलके खर्चकी व्यवस्था करेंगे। यह असली न्याय है। प्राचीन कालमें विद्यार्थी गुरुके पास समिधा लेकर जाया करते थे। गुरुसे कहते थे कि हम आपके लिए जंगलसे लकड़ियाँ लायेंगे, आपके पशुओंकी देखभाल करेंगे, आप हमें दीक्षा दीजिए। पूनामें विद्यार्थिगण ऐसा एक अनाथ विद्यार्थी-आश्रम भिक्षा-वृत्तिसे चलाते हैं। आप भी ऐसा करें, लेकिन आजकलके अपने स्कूलोंमें जाकर अपना मनुष्यत्व न खो बैठें। आपसे तो बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं।
यहाँ सूरतमें ही इस तरहकी दो महान् संस्थाएँ हैं। उनमें पढ़नेवाले विद्यार्थी बहुत सुन्दर काम कर सकते हैं। सूरत अब बदसूरत बन गया है। मैं सूरत से आत्म-सम्मान-