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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


'ब्रह्मचर्य' शब्द संस्कृतका है और यह अंग्रेजीके 'सेलीबेसी' शब्दकी अपेक्षा बहुत अधिक व्यापक है। ब्रह्मचर्यका अर्थ है सम्पूर्ण मनोविकारों और इन्द्रियोंपर पूर्ण नियन्त्रण। पूर्ण ब्रह्मचारीके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। लेकिन यह एक आदर्श और अत्यन्त दुर्लभ स्थिति है। यह लगभग ज्यामिति-शास्त्री यूक्लिडकी उस रेखाके समान है, जिसका अस्तित्व केवल कल्पनामें है तथा जिसे कभी मूर्तरूप प्रदान नहीं किया जा सकता; तथापि यह ज्यामिति-शास्त्रका एक बहुत बड़ा सिद्धान्त है और इससे बड़े-बड़े परिणामोंकी उपलब्धि हुई है । इसलिए भले ही पूर्ण ब्रह्मचारीका अस्तित्व कल्पनामें ही हो, लेकिन यदि हम उसे निरन्तर अपने मानस-चक्षुके सामने न रखें तो हमारी स्थिति बिना पतवारकी नौकाकी-सी हो जायेगी। [हम] उस काल्पनिक स्थितिके जितने निकट पहुँचेंगे, उतने ही पूर्ण बनेंगे।

लेकिन फिलहाल तो मैं 'ब्रह्मचर्य' के उसी अर्थतक सीमित रहूँगा जिस अर्थका बोध अंग्रेजीके 'सेलीबेसी' शब्द से होता है। मेरे विचारसे सम्पूर्ण आध्यात्मिक उपलब्धिके लिए मनसा, वाचा, कर्मणा संयमका पालन करना आवश्यक है और जिस राष्ट्रमें ऐसे लोग नहीं हैं वह राष्ट्र उस हृदतक रंक है। लेकिन यह-सब कहनेका मेरा उद्देश्य तो सिर्फ इतना ही है कि राष्ट्रके विकासकी वर्तमान स्थितिमें ब्रह्मचर्यका एक अस्थायी आवश्यकताके रूपमें पालन किया जाना चाहिए।

हमारे यहाँ लोगोंमें अपेक्षाकृत बीमारी, अकाल तथा गरीबी बहुत ज्यादा है, यहाँतक कि करोड़ों लोगोंको पेटभर खानेको नहीं मिलता। हमें ऐसी चतुराईसे गुलामीकी चक्कीमें पीसा जा रहा है कि हममें से कुछ लोग तो इस तथ्यको स्वीकार करनेसे भी इनकार करते हैं तथा आर्थिक, मानसिक व नैतिक अवनतिके त्रिविध अभिशापोंके बावजूद अपनी स्थितिको उत्तरोत्तर स्वतन्त्रताकी ओर अग्रसर होता हुआ मानते हैं। निरन्तर बढ़ता हुआ सैनिक-व्यय तथा जान-बूझकर लंकाशायर और अन्य ब्रिटिश हितोंको लाभ पहुँचानेके लिए बनाई गई वित्तीय नीति और विभिन्न राजकीय विभागोंके संचालनका फिजूलखर्च तरीका——इन सबके परिणामस्वरूप भारतपर इतना ज्यादा बोझ पड़ गया है कि वह पहले से बहुत अधिक गरीब हो गया है और उसमें इन रोगोंका मुकाबला करनेकी क्षमता नहीं बच रही। श्री गोखलेके शब्दोंमें, शासन-प्रबन्धके इस तरीकेने राष्ट्रीय विकासको इतना "बौना" बना रखा है कि "हमारे ऊँचेसे-ऊँचे व्यक्तित्वोंको भी झुकना पड़ता है।" अमृतसरमें भारतीयोंको, और इस तरह भारतको, पेटके बल रेंगना पड़ा, पंजाबका जान-बूझकर अपमान किया गया तथा भारतीय मुसलमानोंको दिये गये वचनको उद्धतताके साथ भंग करने के लिए क्षमा माँगने तकसे इनकार कर दिया गया——ये दोनों बातें शासनके नैतिक दिवालियेपनके ताजा उदाहरण हैं। ये आघात हमारी अन्तरात्मापर ही किये गये हैं। यदि हम इन दोनों अन्यायोंके आगे आत्मसमर्पण कर देते हैं तो समझ लीजिए, सरकार हमें पूरी तरहसे पुंसत्वहीन बनानेमें सफल हो गई।

जिस अपमानास्पद वातावरणकी मैंने चर्चा की है क्या उसे समझनेवाले व्यक्तियोंका बच्चे पैदा करना उचित है? जब हम रोग व अकालसे ग्रस्त हों और अपने-आपको