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निजी तौरपर

असहाय महसूस करते हों, और असहाय हैं भी, हमारा प्रजननकी क्रियाको जारी रखना सिर्फ गुलाम और दुर्बल लोगोंकी संख्यामें वृद्धि करना ही होगा। जबतक भारत स्वतन्त्र नहीं हो जाता; उसमें भुखमरीको दूर करनेकी क्षमता उत्पन्न नहीं होती; अकालके दिनोंमें अपने लिए भोजन जुटा पानेकी योग्यता नहीं आती; वह मलेरिया, हैजा, इन्फ्लुएन्जा तथा अन्य महामारियोंका सामना करने योग्य ज्ञान प्राप्त नहीं करता तबतक हमें बच्चे पैदा करनेका अधिकार नहीं है। मुझे जब कभी किसीके यहाँ बच्चा पैदा होनेका समाचार मिलता है उस समय जो दुःखानुभूति होती है उसे मुझे पाठकोंसे छिपाना नहीं चाहिए। मुझे यह बता देना चाहिए कि मैंने स्वेच्छापूर्वक आत्मनिग्रह द्वारा संतानोत्पत्ति बन्द रखनेकी सम्भावनापर वर्षोंतक चिन्तन किया है और मेरा निष्कर्ष सन्तोषकारक रहा है। भारत आज अपनी वर्तमान जनसंख्याकी ही सार-सँभाल करनेके लिए पूरी तरह तैयार नहीं है, सो भी इसलिए नहीं कि उसकी जनसंख्या बहुत अधिक है अपितु इसलिए कि वह विदेशी शासनके शिकंजेमें पड़ गया है। ऐसा विदेशी शासन जिसका धर्म ही यह है कि वह यहाँ प्राप्त होनेवाले साधनोंसे जितना अधिक लाभ उठा सकता है, उठाये।

सन्तानोत्पत्तिको कैसे रोका जाये? यूरोपमें प्रयुक्त अनैतिक व कृत्रिम साधनों द्वारा नहीं अपितु संयम और अनुशासनपूर्ण जीवन द्वारा! माता-पिताओंको अपने बच्चोंको ब्रह्मचर्यका पालन करना सिखाना चाहिए। हिन्दू शास्त्रोंके अनुसार लड़कोंकी विवाहावस्था कमसे-कम पच्चीस वर्ष है। अगर हिन्दुस्तानकी माताएँ ऐसा मानने लगें कि लड़के और लड़कियोंको वैवाहिक जीवनके लिए तैयार करना पाप है तो हिन्दु- स्तानमें आधी शादियाँ स्वतः बन्द हो जायें। हमें इस भ्रममें भी नहीं पड़े रहना चाहिए कि हमारे देशकी गर्म आबोहवा के कारण लड़कियाँ कम उम्र में ही यौवनावस्थाको प्राप्त हो जाती हैं। इससे अधिक भयंकर किसी अन्धविश्वासकी बात मैंने कभी नहीं सुनी। मैं यह कहनेकी धृष्टता करता हूँ कि जल्दी यौवनावस्थाको प्राप्त होनेकी बातका आबोहवासे कोई सरोकार नहीं है। लड़कियोंके शीघ्र जवान होनेका कारण वह मानसिक और नैतिक वातावरण है जो हमारे पारिवारिक जीवनमें व्याप्त है। माताएँ और परिवारकी अन्य महिलाएँ निर्दोष बच्चोंको यह सिखाना अपना धर्म मान लेती हैं कि अमुक अवस्थाके बाद उनका विवाह होना है। बाल्यावस्था, बल्कि कभी-कभी शैशवावस्था,में ही उनकी सगाई कर दी जाती है। बच्चोंको जो पोशाक पहनाई जाती है और उन्हें जो भोजन खिलाया जाता है वह भी वासनाको उकसानेवाला होता है। हम बच्चोंको उनके लिए नहीं बल्कि अपने आनन्द और मिथ्याभिमानके लिए गुड्डे-गुड़ियोंकी तरह सजाते हैं। मैंने बीसों बच्चोंका लालन-पालन किया है। उन्हें जो-कुछ पहनाया जाता था उसे वे बिना किसी झंझटके पहन लेते थे और उसीमें आनन्द मानते थे। हम उन्हें हर प्रकारके गर्म और उद्दीपक भोजन खानेको देते हैं। उनके प्रति अपने मोहके कारण अन्धे होकर हम उनकी क्षमताकी ओर ध्यान ही नहीं देते। इसका परिणाम यह होता है कि वे जल्दी ही वयको प्राप्त हो जाते हैं, असमयमें सन्तान पैदा करते हैं और जल्दी ही मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं। माता-पिता

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