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"मेरे अनुयायी"


उपर्युक्त पत्र-लेखक अहमदाबाद और वीरमगाँवमें हुई हत्याओंकी[१]याद दिलाता है। हजारों व्यक्तियोंने मिलकर एक गोरेकी हत्या की। एक भारतीय अमलदारको मारकर उसकी लाशको जला डाला; इसमें क्या मर्दानगी थी? शूरवीर इस तरह नहीं लड़ते। आजतक मारनेवाले लोग पकड़े नहीं जा सके हैं। इस तरह गुप्त रूपसे मारकर भाग जाना तो हत्यारेकी तरह व्यवहार करना है। इसमें न तो मर्दानगी है, न हिम्मत है, न देशभक्ति, न आत्म-त्याग अथवा न कोई अनुकरण करने योग्य दृष्टान्त ही है। ऐसे अघोर कृत्य करनेवाले व्यक्ति देशका नुकसान ही करते हैं। जबतक ऐसे व्यक्ति गुजरातमें हैं तबतक असहयोग आन्दोलन पूरे वेग से नहीं चल सकता। चलाना चाहें तो भी नहीं चल सकता। जिस तरह अन्धकार प्रकाशको घेर लेता है उसी तरह उपर्युक्त आदर्श भी, निःसन्देह, स्वार्थ-त्यागमय असहकारकी गतिको अवरुद्ध करते हैं, असहकारकी तालीममें बाधा उपस्थित करते हैं। असहकार आन्दोलनकर्त्ताओंका यह कर्त्तव्य है कि वे बोलशेविज्मके विचारवाले व्यक्तियोंको प्रेमसे रोकें, तर्कसे समझाएँ और उन्हें पुरुषत्वहीनता से विरत करें।

जिस सज्जनको उपर्युक्त पत्र मिला है वे मुझे लिखते हैं : "मेरा विचार है कि इस पत्रको पढ़कर आपका मन दुःखी हुए बिना न रहेगा। आप शान्त और बिना जोर-जबरदस्तीके असहकारकी सलाह देते हैं और प्रत्येककी हृदगत भावनाओं और मान्यताओंको सम्मान देनेकी बात करते हैं; तथापि आपके अनुयायी बलात्कार किये जानेका भय बताकर किस हदतक जनताको असहयोग अपनानेके लिए विवश करते हैं, यह आपको इस पत्रसे मालूम होगा और फिर यह तो अभी शुरुआत ही है। असहकारके परिणामस्वरूप होनेवाले बल-प्रयोगसे अनर्थ होगा, जिन लोगोंकी ऐसी मान्यता है अगर वे उससे दूर ही रहना चाहें तो इसमें अचरजकी कोई बात नहीं।" लेखकका पत्र इससे लम्बा है, मैंने तो केवल आवश्यक वाक्यांशोंको ही उद्धृत किया है। 'बोलशे-विज्म' में विश्वास रखनेवाले लोगोंको मेरा अनुयायी मानकर लेखकने मेरे प्रति अन्याय किया है। यदि सिर्फ मेरे साथ ही अन्याय किया होता तो मैं वाद-विवादमें न उलझता, लेकिन यह कहकर तो लेखकने असहयोगके साथ अन्याय किया है। मैं तो किसीको भी अपना अनुयायी नहीं मानता। मेरे विचार जिस व्यक्तिको पसन्द आते हैं वह व्यक्ति मेरे उन विचारोंका अनुयायी है [न कि मेरा अपना] मेरे विचारोंके विरुद्ध आचरण करनेवाले व्यक्ति न तो मेरे अनुयायी हैं और न मेरे विचारोंके।

जैसे किसी व्यक्तिको किसी अच्छी प्रवृत्तिके अर्थका अनर्थं करनेसे नहीं रोका जा सकता उसी तरह असहकार-जैसी आवश्यक प्रवृत्तिको दुरुपयोगके भयसे नहीं रोका जा सकता। अनेक व्यक्ति 'गीता' के अर्थका अनर्थ करते हैं लेकिन इससे जनता 'गीता' की निन्दा नहीं करती और न ही 'गीता' को पढ़ना छोड़ देती है। ईसाई धर्मकी दुहाई देकर अपने आपको ईसाई कहलानेवाले लोग लूट-पाट करते हैं तो इसमें न तो उनके धर्मका कोई दोष है और न उस धर्मके प्रवर्त्तकका ही।

  1. १९१९ में।