सरकारके दोष-दर्शन करानेसे जनता के मनमें उसके प्रति द्वेषभाव बढ़ेगा, इस भयसे दोषको छिपाया नहीं जा सकता। निर्दोषके प्रति द्वेषभाव न रखना——अद्वेष-गुणका परिचायक नहीं है, दोषीसे भी द्वेष न करें उसीमें अद्वेषगुणकी शोभा है। यही कारण है कि मैं ब्रिटिश साम्राज्यके बड़े-बड़े दोषोंको बताते हुए भी उनके प्रति उत्पन्न होनेवाले द्वेषभाव, हिंसाको रोककर उनके साथ असहयोग करके उनका हृदय- परिवर्तन करवाने अथवा उनसे हिन्दुस्तानको खाली करवानेके राजमार्गकी ओर इंगित कर रहा हूँ।
इससे कुछ समयके लिए लोगोंके दिलोंमें द्वेष बढ़ेगा, 'बोलशेविक'-जैसे पागल व्यक्तियोंका उपद्रव भी होगा और मैं इनको रोकनेका प्रयत्न भी करूँगा; लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य अपने वर्तमान स्वरूपमें हमेशा बना रहे यह बात मुझे सहन नहीं है। इसकी अपेक्षा तो मैं उपर्युक्त उपद्रवोंको ही अधिक पसन्द करूँगा। अंग्रेजोंने जिस बोलशेविज्मकी प्रतिष्ठा कर रखी है उसकी अपेक्षा इस तरह के बोलशेविज्मको दूर करना अधिक सहल है, ऐसी मेरी मान्यता है। यदि जनमत 'बोलशेविक '-जैसे मूर्खसे असहयोग करे तो यह पागलपन एक ही फूँकमें ताशके पत्तोंसे बने महलके समान ढह जायेगा।
लेखकने अपने पत्रमें गुस्सेसे भरे हुए कुछ एक वाक्य भी लिखे हैं, मैं उनसे क्रोधका त्याग करनेका अनुरोध करता हूँ। विधान परिषद् में जानेकी बातको यदि वे धर्म समझते हैं तो भले ही जायें, लेकिन यदि वे "बोलशेविक" के पत्रसे आवेशमें आकर विधान परिषद् में जाते हैं तो यह भी एक प्रकारका बोलशेविज्म ही माना जायेगा। क्रोधवश क्या देशके हितको नुकसान पहुँचाना ठीक होगा?
लोकमतके विरुद्ध विधान परिषदोंमें जाना अभी तो उचित नहीं जान पड़ता। जिन मतदाताओंके मतके बलपर उम्मीदवार विधान परिषदोंमें जाते हैं, वे उन्हीं मतदाताओंके मना करनेपर भी यदि जानेका आग्रह करें तो इस आग्रहको हम कौन-सा विशेषण देंगे?
हमारे पास एक ही राजमार्ग है। ऐसे व्यक्ति जो विधान परिषदोंको स्वतन्त्रताका द्वार मानते हैं और मेरे-जैसे व्यक्ति जो विधान परिषदोंको हिन्दुस्तानके लिए मृत्युपाश समझते हैं——दोनों ही मतदाताओंको अत्यन्त धैर्यपूर्वक इनके गुणदोष समझायें और फिर उनके अर्थात् मतदाताओंके कथनानुसार आचरण करें। [समझानेके बावजूद] अगर मतदाता किसीको विधान परिषदोंमें भेजना चाहते हों तो मेरे-जैसे लोग उन्हें रोकेंगे नहीं और यदि मतदाता उम्मीदवारोंके सम्मुख विधान परिषदोंमें जानेकी बातपर स्पष्ट रूपसे विरोध करते हैं तो विधान परिषदोंमें न जाना उम्मीदवारोंका धर्म है। यदि विधान परिषदोंका विरोध करनेवाले व्यक्ति जोर-जबरदस्ती करेंगे तो वह पाप होगा और यदि उम्मीदवार जबरदस्ती विधान परिषदोंमें जायेंगे, तो वह भी महापाप होगा। इसमें उम्मीदवारोंके लिए कोई धर्म-संकट नहीं क्योंकि उनका धर्म ही यह है कि उनके क्षेत्रके मतदाताओंकी इच्छा होनपर ही वे विधान परिषदोंमें जायें।
नवजीवन, १७-१०-१९२०