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जे॰ पटेल[१]और डा॰ कानुगा उन लोगोंमें से थे जिन्होंने जुर्माना देनेमें असमर्थता प्रकट की। श्री पटेल वहाँके एक प्रमुख वकील हैं और डा॰ कानुगा प्रसिद्ध चिकित्सक। सभी स्वीकार करते हैं कि इन दोनोंने उपद्रव शान्त करने में अधिकारियोंकी मदद की थी। इसमें सन्देह नहीं कि दोनों सत्याग्रही थे, किन्तु दोनोंने अपनी जानकी जोखिम उठाकर भी भीड़के क्रोधको शान्त करनेकी कोशिश की थी। लेकिन अधिकारीगण उनको जुर्मानेसे बरी क्यों करने लगे! इक्के-दुक्के मामलोंमें अपने विवेकका उपयोग करके उन्हें छूट देना शायद उनको बहुत कठिन गुजर रहा था, लेकिन उधर उन दोनों सज्जनोंके लिए भी जुर्माना देना उतना ही कठिन था, क्योंकि उनका कोई दोष नहीं था। वे अधिकारियोंको परेशानीमें नहीं डालना चाहते थे, लेकिन अपने आत्मसम्मानकी रक्षाकी चिन्ता तो उन्हें थी ही। उन्होंने इस बातको लेकर कोई शोरगुल नहीं किया, सिर्फ यह सूचित कर दिया कि उपर्युक्त परिस्थितियोंको देखते हुए वे जुर्माना देनेमें असमर्थ थे। परिणामत: कुर्कीका आदेश दिया गया। डा॰ कानुगाका धन्धा बहुत जोरोंसे चला हुआ है और उनका कैश-बक्स बराबर भरा ही रहता है। चौकस कुर्क अधिकारीने उसे अपने कब्जेमें कर लिया और फिर वसूलीके आदेशमें जितनी रकम बताई गयी थी, उसके बराबर पैसे बक्ससे निकाल लिये। किसी वकीलका धन्धा इस तरह नहीं चलता। श्री पटेलके पास पैसे रखनेका ऐसा कोई बक्स नहीं था। इसलिए उनकी बैठकका एक सोफा कुर्क कर लिया गया और फिर उसकी बिक्रीका इश्तिहार देकर बाकायदा बेच दिया गया। इस प्रकार दोनों सत्याग्रहियोंने अपनी अन्तरात्माकी पूरी रक्षा की।

चतुर लोग शायद इस बातपर हँसेंगे कि उन्होंने अपने खिलाफ कुर्कीके हक्मनामे जारी होने दिये और सीधे-सीधे जुर्माना न देकर जुर्मानके साथ-साथ वसूलीकी कार्रवाईका खर्च भी दिया। अगर ऐसे एक-दो नहीं, बहुत सारे मामले होने लगें तो कल्पना कीजिए कि इन मामलोंमें जारी किये गये हजारों हुक्मनामोंपर अमल करनेका मतलब अधिकारियोंके लिए क्या होगा। इस तरहके हुक्मनामे तो तभी सम्भव हैं, जब वे इक्के-दुक्के हठधर्मी और दुराग्रही लोगोंतक सीमित हों, लेकिन जब इन हुक्मनामोंपर ऐसे बहुत सारे मनस्वी लोगोंके खिलाफ अमल करना हो जिन्होंने कोई गलती नहीं की है और जो सिद्धान्तकी प्रतिष्ठाकी खातिर जुर्माना देनेसे इनकार करते हैं तो उस हालतमें ये अधिकारियोंके लिए बहुत परेशानीका कारण बन जाते हैं। जब विरोध-प्रदर्शनके इस तरीकेको इक्के-दुक्के व्यक्ति अपनायें तो, सम्भव है, इनकी ओर अधिक लोगोंका ध्यान न जाये। लेकिन ऐसे शुद्ध दृष्टान्तोंकी एक विचित्र खूबी यह है कि लोग बड़ी तेजीसे इनका अनुकरण करने लगते हैं। इनका प्रचार होता चला जाता है और जो लोग इस तरह एक सिद्धान्तकी खातिर जुर्माना न देकर कष्ट उठाते हैं उनकी बदनामी

  1. सरदार बल्लभभाई पटेल, (१८७५-१९५०); गुजरातके कांग्रेसी नेता; स्वतन्त्र भारतके प्रथम उप-प्रधान मन्त्री।