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२०५. अनुशासनकी आवश्यकता

मद्रासमें व्यवस्था और अनुशासन सम्बन्धी अपने अनुभवोंके विषयमें मैं लिख ही चुका हूँ। रुहेलखण्डके दौरेमें मैं भी व्यवस्थाका वैसा ही अभाव देख रहा हूँ। हर जगह अव्यवस्था और गड़बड़ी होती रहती है। इसका कारण आदमियोंकी कमी नहीं, प्रशिक्षित स्वयंसेवकोंकी कमी है। उन्हें अभूतपूर्वं परिस्थितिमें अभूतपूर्व भीड़भाड़को व्यवस्थित रखना पड़ता है और फल होता है काम कम, हलचल और शोर अधिक।

मौलाना शौकत अली संगठनके मामलेमें कभी हार नहीं मानते। वे सभी दलोंको सन्तुष्ट करना चाहते हैं और इसलिए जो भी कार्यक्रम बनाते हैं; वह जरूरतसे ज्यादा ठसा हुआ बन जाता है। एक उदाहरण दे रहा हूँ। उन्होंने एक ही दिनमें अलीगढ़से हाथरस, हाथरससे एटा और एटा से कासगंज मोटरसे और इसके बाद कासगंजसे कानपुर रातमें रेलसे जाना मंजूर किया। पहले मोटरमें बैठकर हम लोग ९० मीलतक गये और बहुत सुबह कार्यकर्त्ताओंके बीच बैठक हुई। वह बहुत थकानेवाली बैठक सिद्ध हुई। वहाँसे सवेरे ९-४५ पर हम लोग मोटरमें सवार हुए और ११ बजे हाथरस पहुँचे। तबतक धूप बहुत सख्त हो गई थी। हर जगहकी तरह वहाँ भी जुलूस तैयार था और शोर मचा हुआ था। जुलूसके बाद जबरदस्त सभा हुई; उसमें इतनी जोरसे बोलना पड़ा कि आवाजवाले वक्ताओंके कण्ठ भी हार मान गये। हमारे इस सब परिश्रमका फल कमसे-कम इतना अवश्य हुआ कि तीन अवैतनिक न्यायाधीशोंने अपने पदोंसे त्यागपत्र दे दिये। हाथरससे मोटर द्वारा हम लोग एटा पहुँचे। हाथरसके मुकाबले यहाँ व्यवस्था कुछ अच्छी थी। एटामें काम समाप्त करके हम लोग मोटरसे कासगंज रवाना हुए। रास्तेमें दुर्घटना हुई, गाड़ियाँ खराब हो गईं और जैसे-तैसे हम लोग कासगंज पहुँचे। मौलाना शौकत अली और उनके साथी तो गाड़ीके वक्ततक आ ही नहीं पाये। एटामें अनेक लोगोंने त्यागपत्र दिये। कासगंजकी सभाका आकार-प्रकार देखते हुए कहा जा सकता है कि उसकी व्यवस्था काफी ठीक थी; किन्तु उस व्यवस्थाको बनाये रखना सहज नहीं था। पाँव छूनेका तमाशा काबूके बाहर हो गया। उसमें बहुत वक्त खराब हुआ। कोई जबरदस्त भीड़ इस कामको शुरू कर दे तो उसमें खतरा पैदा हो जाता है।

लेकिन कासगंजसे कानपुर तककी रातकी यात्रा तो बहुत ही खराब रही हर स्टेशन पर भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। इससे सारी यात्रा अत्यन्त असुविधाजनक हो गई। भीड़ हर जगह आग्रह करके हम लोगोंको देखना चाहती थी। मुझे जगानेके लिए जो शोर मचाया जाता था; वह कर्कश और हृदय-बेधक होता था। मैं थका हुआ था। मेरा सिर चकरा रहा था और मुझे आरामकी बहुत जरूरत थी। श्रीमती गांधी और दूसरे लोग भीड़से इल्तजा करते थे कि वे चुप रहें और संयम बरतें; मगर इसका कोई असर नहीं होता था। श्रीमती गांधी और जनतामें मानो रस्साकसी होती थी। वे रोशनी बन्द करती या खिड़की बन्द करती थीं तो लोग रोशनी करते थे और खिड़कियाँ खोलते थे। जब उनसे कहा जाता कि गांधीजी आराम कर रहे हैं, क्या आप लोग यह