असहयोग आन्दोलन प्रभावशाली तभी हो सकता है कि जब हमारी इस प्राचीन और महान् देशकी जनताके विभिन्न वर्गोंमें सहयोग स्थापित हो जाये। सहयोगका यह कार्यक्रम हम अपने प्रियजनोंसे प्रारम्भ करें।
यंग इंडिया, २०-१०-१९२०
२०६. ब्रिटिश कांग्रेस कमेटी और 'इंडिया'
कुमारी नॉर्मेन्टनने[१]मुझे एक खुली चिट्ठी भेजी है, जिसे मैं दूसरे स्तम्भमें दे रहा हूँ। उक्त महिला जब 'इंडिया' की सम्पादिका थीं, तब मैं उनके लेख आदि पढ़ता था; मेरा उनका इतना ही परिचय है। असहयोगपर उनके विचार प्रबल हैं; वे शक्तिशाली और शक्तिदायी हैं। सुधारोंके बाद भी कौंसिलोंके बहिष्कारका समर्थन उन्होंने जिस तरह खुलकर किया है, उससे उन लोगोंको शक्ति मिलनी चाहिए जो आगा-पीछा कर रहे हैं तथापि बहिष्कारका अंग्रेज प्रजा या 'लीग ऑफ नेशन्स' पर जो असर पड़ सकता है, उसे बढ़ा-चढ़ाकर न देखनेकी प्रार्थना मैं पाठकोंसे अवश्य करूँगा। हमारे कामसे, बाहरके लोगोंकी जो राय बनती है उसका खयाल किये बिना, हमें अपने कर्त्तव्यपर ध्यान देते रहना चाहिए; यही हमारे लिए अच्छा है। हमारे कामका अंग्रेज जनताके मनपर जो असर हुआ है, उसे हमने बढ़ा-चढ़ाकर आँका है। और इससे प्रायः ही राष्ट्रके हितोंकी हानि हुई है। साथ ही मुझे यह अवश्य लगता है कि कुमारी नॉर्मेन्टनके तर्क अपनी जगह बिलकुल ठोस हैं।
फिर भी ब्रिटिश समितिके विषयमें उन्होंने जो विचार रखे हैं, कदाचित् जनताको उनमें ज्यादा दिलचस्पी जान पड़ेगी। उन्होंने जिस विवादकी चर्चा की है, उसके पक्ष-विपक्षमें मुझे कुछ मालूम नहीं है। फिर भी समितिके विधानपर उनके विचार मौलिक जान पड़ते हैं। उनकी इस बातसे मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि अगर किसी समितिका नाम ब्रिटिश समिति हो, तो फिर उसके सब सदस्य और उसकी नीति ब्रिटिश ही होनी चाहिए और तब यह ब्रिटिश जनतापर अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव डाल सकेगी।
तब हमें निश्चय ही इसका सही-सही पता चल जायेगा कि ब्रिटिश लोग भारतीय मामलोंमें कितनी दिलचस्पी लेते हैं। 'इंडिया' नामक समाचारपत्रके विषयमें भी कुमारी नॉर्मोन्टनके विचारोंका मैं समर्थन करता हूँ। वह जितना काम करता है, उसके अनुपातमें उसपर बहुत अधिक खर्च होता है। अंग्रेज जनतापर उसका प्रभाव भी लगभग नहीं के बराबर है। और हिन्दुस्तानके लोगोंको भी पूरी तरह ब्रिटिश जनताकी रायसे अवगत रखनेमें उसे बहुत दिलचस्पी नहीं है। इसलिए
- ↑ कुमारी हेलेना नॉर्मेन्टन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके मुखपत्र इंडियाको भूतपूर्वं सम्पादिका। गांधीजी को लिखे १५ सितम्बर, १९२० के अपने पत्रमें उन्होंने असहयोगकी नीतिका समर्थन किया था।