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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है, यही मानते हैं कि जबतक हिन्दू-मुस्लिम दोनों ईसाई नहीं बन जाते तबतक हिन्दुस्तानका उद्धार असम्भव है।

लेकिन जैसे जनताको अंग्रेज अथवा ईसाई बननेके आदर्श पसन्द नहीं आ सकते वैसे ही मुझे 'होमरूल' शब्दका प्रयोग करना बिलकुल पसन्द न था। 'स्वराज्य' में जो अर्थ है, जो बल है वह 'होमरूल' में नहीं है। स्वराज्य शब्दका अर्थ हिन्दू, मुसलमान और अनपढ़ भी समझ सकते हैं, 'होमरूल' का अर्थ उनकी समझसे बाहर है। इसी कारण होमरूल शब्दका त्याग करके हमने स्वराज्य शब्दको उसका उचित स्थान प्रदान किया है।

इसके उपरान्त हमने जो अन्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये हैं वे भी जानने और विचार करने योग्य हैं। पहले हमारा आदर्श ब्रिटिश साम्राज्यकी छत्रछायामें ही रहकर उपनिवेशोंकी तरह होमरूलका उपयोग करना था। इस आदर्शके बदले अब यह परिवर्तन किया गया है कि भारतीय प्रजा जिस तरहका स्वराज्य चाहेगी, हम उसे प्राप्त करनेका प्रयत्न करेंगे। प्राप्त साधनोंके सम्बन्धमें आजतक झगड़ा होता रहता है; इसलिए साधनोंमें जो प्रभावकारी और निःशस्त्र हों, शान्तिपूर्ण हों, ऐसे समस्त साधनोंको स्थान प्रदान किया गया है। परिणामस्वरूप हमारा वर्तमान आदर्श यह है कि हमें तलवारका प्रयोग किये बिना स्वराज्य प्राप्त करना है।

जनताकी आवाज ही कांग्रेसकी आवाज है। होमरूल लीग हमेशा कांग्रेसकी सहायक संस्था रही है और स्वराज्य सभा भी उसकी सहायक संस्था रहना चाहती है। इसलिए कांग्रेसके संविधानमें स्वराज्यका जो अर्थ किया गया है इसमें भी फिलहाल वही रखा गया है; तथापि इसका अभिप्राय यह है कि स्वराज्य सभा कांग्रेसके संविधानमें फेरफार करानेका सतत् प्रयत्न करेगी।

इन सुधारोंको मैं निर्दोष और आवश्यक मानता हूँ। इनका हेतु स्पष्ट है। ये सुधार बहुत विचार-विमर्श करनेके बाद किये गये हैं। उचित संविधानकी रचनाके लिए श्री जवाहरलाल नेहरू, श्री राजगोपालाचारी, श्री उमर सोबानी तथा बम्बई शाखाके प्रमुख श्री जिन्ना और श्री जयकरकी[१]समिति नियुक्त की गई थी। संविधानपर—— एक बार कलकत्तामें और एक बार बम्बईमें——सभाओंमें विचार-विमर्श किये जानेके बाद प्रस्ताव बहुमत से पास हो गया।

तथापि वकील-वर्ग और दूसरे अनेक भाइयोंने स्वराज्य सभासे त्यागपत्र दे दिया है। त्यागपत्रपर आजतक के अनेक नामांकित पुरुषोंके हस्ताक्षर हैं। मुझे इन त्यागपत्रोंसे दुःख हुआ है। इसमें जो कारण दिये गये हैं उन्हें पढ़कर मुझे विशेष दुःख हुआ। स्वराज्य सभाके लिए इन भाइयोंकी सहायता मूल्यवान थी। तथापि जहाँ आदर्शोकी बात आती है वहाँ प्रियसे-प्रियजनोंके वियोगको भी सहन करना पड़ता है और उसीमें आनन्द मनाना पड़ता है।

आइये अब तनिक त्यागपत्रपर विचार करें।

  1. मुकुन्दराव रामराव जयकर (१८७३-१९५९); बम्बईके वकील और उदार दलीय नेता; पूना विश्वविद्यालय के उप-कुलपति।