सबसे पहले मुझपर लगाये गये आरोपकी जाँच करें। श्री जिन्नाने यह तर्क दिया है कि जबतक तीन चौथाई मतोंसे संशोधनको स्वीकार नहीं किया जाता तबतक वह संशोधन बाकायदा नहीं माना जायेगा। इसका कारण उन्होंने यह बताया कि होमरूल लीग परिषद् के प्राचीन संविधान के अनुसार किसी भी संशोधनको तीन चौथाई मतोंके बिना स्वीकार नहीं किया जा सकता। उसपर मैंने यह व्यवस्था दी कि होमरूल लीग परिषद्की आम समितिने परिषद्द्मर जो रोक लगाई है वह रोक स्वयं आम समितिपर लागू नहीं होती। आम समितिको बहुमतसे निर्णय करनेका सामान्य अधिकार है और वह परिषद्पर लगाई गई रोकसे रद नहीं होता। अपने इस कथनपर मैं अब भी कायम हूँ। मेरे द्वारा दी गई इस व्यवस्थाके सम्बन्धमें श्री जिन्ना और उनके साथियोंने जिस विशेषणका प्रयोग किया है उसके सम्बन्धमें मैं वाद-विवाद में पड़नेकी जरूरत नहीं समझता।
लेकिन मैंने यह सोचकर कि श्री जिन्ना-जैसे व्यक्तिने जो विचार प्रकट किये हैं, और श्री जयकर-जैसे व्यक्तिने जिनका अनुमोदन किया है उनके सम्बन्धमें मुझे खूब सोच-विचार करना चाहिए, मैंने दूसरे वकीलोंसे सलाह-मशविरा किया। उन्होंने भी मेरे कथनका समर्थन किया और कहा कि इसके अतिरिक्त मैं कुछ और कह ही नहीं सकता था। यदि कोई दूसरी बात कहता तो स्वेच्छाचारी कहलाता।
त्यागपत्र देनेका दूसरा कारण उन्होंने यह बताया कि स्वराज्य सभाने कांग्रेसके संविधानकी अवमानना की है। यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि मैं पहले कह आया हूँ कि जबतक कांग्रेसके संविधानमें परिवर्तन नहीं किया जाता तबतक कांग्रेसने स्वराज्यका जो अर्थ किया है हम उसे ही मान्य रखेंगे।
तीसरा आरोप कुछ गम्भीर है। श्री जिन्ना और उनके साथी लिखते हैं कि स्वराज्य प्राप्त करनेके उपायोंसे सम्बन्धित खण्डसे यही अर्थ निकलता है कि स्वराज्य सभा कानून विरोधी आन्दोलन भी चला सकती है। यह अर्थ कुछ हदतक सही है, क्योंकि उपायोंमें सविनय अवज्ञाका समावेश हो सकता है, ऐसी मेरी मान्यता है। इसलिए इस बातका अवकाश रखना मैं उचित समझता हूँ। संविधान अथवा कानूनके अन्तर्गत कौन-कौनसी बातें आती हैं, यह बताना हमेशा ही आसान नहीं होता। कोई कहता है कि असहकार गैरकानूनी है। किसीका कहना है कि सविनय अवज्ञा कानूनके विरुद्ध है। इस तरहके धर्मसंकटमें न पड़नेकी वजहसे उपायोंसे सम्बन्धित खण्डमें छूट रखी गई है। लेकिन इसका कदापि यह अर्थ नहीं कि स्वराज्य सभा कानूनकी मनमानी अवज्ञा करनेके तत्त्वको उत्तेजन देगी। शान्तिपूर्णं उपायोंका ही सहारा लिया जा सकता है। सम्बन्धित खण्डमें की गई इस व्यवस्थाके अनुसार सब तरह की अविनयपर प्रतिबन्धकी बात आ जाती है। उपर्युक्त खण्डका उद्देश्य यह है कि वे सभ्य तरीकोंका परित्याग न करते हुए जो-जो उपाय उचित जान पड़ें उन्हें अपनाने में हमारे सामने कोई दिक्कत न आये।
स्वराज्य सभाके संविधानमें कुछ भी अनुचित नहीं है——यह बात मैं पहले ही बता चुका हूँ। तथापि इन सब नेताओंने सभाका क्यों त्याग किया है? इसका सीधा-