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पत्र : मुहम्मद अली जिन्नाको


मेरा ऐसा खयाल है कि बैठकमें जो कार्य-विधि अपनाई गई थी वह नियमों और विनियमोंके अनुकूल थी और मेरा निर्णय (रूलिंग) भी बिलकुल सही था। आपने यह मुद्दा उठाया था कि तीन चौथाई बहुमत नहीं हुआ है। आपने जिन विनियमोंकी चर्चा की थी, उनका सम्बन्ध लीगकी कौंसिल द्वारा विधानमें परिवर्तन करनेसे था और उसके अनुसार तीन चौथाई मत मिलनेपर ही वह वैध हो सकता था। सम्बन्धित बैठक, जिसमें मतदान हुआ, लीगकी कौंसिलकी बैठक नहीं थी, बल्कि वह लीगकी सामान्य सभा थी। और मैंने यह निर्णय दिया था कि ऐसा कोई नियम नहीं है जिसके द्वारा तीन चौथाई मत प्राप्त किये बिना विधानमें परिवर्तन न करनेके लिए लीगने अपनेको बाध्य माना हो। इसलिए लीग अपने विधानमें किसी भी बहुमतसे परिवर्तन कर सकती है और वैसा परिवर्तन करना उचित हो सकता है। यदि मैंने नियमोंकी आपकी व्याख्या या निष्कर्षको स्वीकार कर लिया होता तो मेरा खयाल है कि उक्त निर्णय अवैध अथवा मनमाना हो जाता। चूँकि कार्य-विधिको चुनौती आपने दी थी और चूँकि कानूनकी आपकी जानकारीके बारेमें मेरी बड़ी ऊँची राय है, इसलिए मैंने उक्त बैठकके बाद अपने निर्णयकी बारीकीसे जाँच की और जिस वकीलसे भी मैंने इस विषयमें सलाह ली, उसने मुझे यही बताया कि जो निर्णय मैंने दिया उसके सिवाय कोई अन्य निर्णय देना मेरे लिए सम्भव ही नहीं था।

आपकी दूसरी आपत्ति यह है कि नये विधानमें आपने "ब्रिटिश सम्बन्धों" का उल्लेख ही छोड़ दिया है तथा "अवैधानिक और गैर-कानूनी कार्रवाइयों" की भी इसमें इजाजत दी गई है।

जहाँतक ब्रिटिश सम्बन्धोंका खयाल है, मेरी समझमें आपका कहना बिलकुल गलत है। क्योंकि नये विधान द्वारा स्वराज्य शब्दका अर्थ जान-बूझकर सीमित किया गया है और उसमें मन्शा यही है कि सभाको कांग्रेसके सिद्धान्तके प्रति पूरी तरह वफादार रखा जाये। इस महत्त्वपूर्ण परिवर्तनको स्वीकार करनेके पहले जो बहस हुई थी, मैं आपको उसकी याद दिलाना चाहता हूँ। एकके-बाद-एक वक्ताने इस बातको स्पष्ट किया कि व्याख्या सम्बन्धी धारा जान-बूझकर इस विचारसे डाली गई है कि कांग्रेससे सभाकी सम्बद्धता साफ, पक्की और सन्देह से परे रहे।

मेरी रायमें आपको इस बातकी कोई जरूरत नहीं है कि वक्ताओंने, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, जो विचार प्रकट किये हैं उन्हें आप भी मान लें। यदि सम्भव होता, तो जिस तरह मैंने अपने भाषणोंमें साफ तौरसे कहा है उसी तरह मैं निश्चय ही किसी भी सिद्धान्तके लिए साफ तौरसे इस बातकी जरूर घोषणा करता कि अपने देशके लिए स्वराज्य हमारा उद्देश्य है; फिर चाहे वह ब्रिटिश सम्बन्धोंके साथ प्राप्त हो, चाहे उनसे अलग होकर। मैं वैसे इस सम्बन्धके खिलाफ नहीं हूँ, किन्तु मैं उसे बहुत अहमियत भी नहीं देना चाहता। उस सम्बन्धकी खातिर एक क्षणके लिए भी मैं भारतको दासताकी बेड़ी पहने नहीं रहने देना चाहता। किन्तु मैंने और अन्य लोगोंने, जो मेरी ही तरह सोचते हैं, अपनी महत्त्वाकांक्षाको इस दृष्टिसे मर्यादित कर लिया है कि हम कांग्रेसको अपने साथ लेकर चल सकें और इस प्रकार उस संस्थासे सम्बन्धित रहनेके