योग्य बने रहें। मैं कहना चाहता हूँ कि आपने जो संशोधन पेश किया था और सभाने जिस मौलिक प्रस्तावको स्वीकार किया है, उन दोनोंमें कोई बड़ा अन्तर नहीं है। अन्तर इतना ही है कि मूल प्रस्ताव देशके सामने शुद्ध स्वराज्यके आदर्शकी दिशामें काम करनेकी बात सामने रखता है। इसलिए मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि परिवर्तन सम्बन्धी आपकी यह आपत्ति (अगर आप उठाना ही चाहें) तो इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है कि आपको संस्था छोड़नी पड़े।
अब बच जाती है पद्धति-सम्बन्धी आपकी आपत्ति। आपने उक्त धारा २ का यह अर्थ लगाया है कि उसके द्वारा "अवैधानिक और गैर-कानूनी कार्रवाइयों" की छूट दी गई है। मैं इस अर्थको बिलकुल स्वीकार नहीं करता। आप यह तो मानेंगे ही कि "अवैधानिक" और "गैर-कानूनी" बिलकुल पारिभाषिक शब्द हैं। मद्रासके एक भूतपूर्व एडवोकेट जनरल असहयोगको "अवैधानिक" मानते हैं। और अगर मैं आपकी बात ठीक-ठीक समझा हूँ, तो आप उसे पूरी तरह "वैधानिक" मानते हैं। कांग्रेसके विशेष अधिवेशनके अध्यक्षने सोच-समझकर निर्णय दिया कि मेरा प्रस्ताव अवैधानिक नहीं था। मैंने भी लगातार २० वर्षोंतक खासी वकालत की है और मेरे लिए ब्रिटिश विधानके अन्तर्गत हिंसात्मक आन्दोलनके अतिरिक्त किसी अन्य अवैधानिक उदाहरणकी कल्पता कर सकता कठिन है। सभाके विधानको असंदिग्ध शब्दोंमें हिंसासे बरी रखा गया है।
यही बात "गैर-कानूनी" शब्दके बारेमें भी लागू है। विधिके ज्ञाता उसकी व्यारुपाके सम्बन्धमें एकमत नहीं हैं। डाक्टरको लानेके लिए अगर कोई साइकिल सवार बिना रोशनी लगाये निकल पड़े तो यह कानूनके खिलाफ तो होगा; लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वह "गैर-कानूनी" हलचलमें लगा हुआ है। वह बड़ी खुशीसे जुरमाना अदा कर देता है और इस तरह कानूनको मानता है। किसी अत्याचारपूर्ण आदेशकी अवज्ञा करना कानूनके खिलाफ हो सकता है, किन्तु मेरी रायमें वह "गैरकानूनी हलचल" नहीं है। ऐसा व्याख्यान देना भी गैरकानूनी हलचल नहीं है, जो किसी जल्दी चिढ़ जानेवाले न्यायाधीशकी रायमें विद्रोहात्मक है।
मैंने आपके सामने ये जो रोजमर्राके उदाहरण पेश किये हैं, उनसे मेरा तात्पर्य यह दिखाना है कि जो देश अपने जीवन, सम्मान और धर्मकी रक्षाके लिए लड़ रहा हो, उसका अपने-आपको पेचीदे पारिभाषिक शब्दोंमें बाँध रखना बहुत ही खतरनाक बात है। यह तो ठीक ही है कि सभी सार्वजनिक संस्थाएँ देशकी स्वतन्त्रता प्राप्त करनेकी पद्धतियोंके विषयमें अलग-अलग सोचें। मैं स्वयं अवैधानिक और गैर-कानूनी ढंगोंको बहुत नापसन्द करता हूँ, किन्तु मैं इनको बहुत बढ़ा-चढ़ाकर भी नहीं देखना चाहता और न ब्रिटिश सम्बन्धको ही बढ़ा-चढ़ाकर देखना चाहता हूँ।
इसलिए मैं आपसे और आपके मित्रोंसे इस बातपर पुनर्विचार करनेकी प्रार्थना करता हूँ कि आप लोगोंने एक ऐसी संस्थासे, जिसे आप परिश्रम और स्नेहके साथ पोषित करते रहे हैं, जल्दीमें अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया है। देशके सामने नई जिन्दगीका जो मैदान खुल गया है, यदि आप उसमें हाथ बँटाना चाहते हैं और देशको