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"दलित" जातियाँ

लिए अपेक्षाकृत अच्छे और इतने अधिक स्कूल खुलवा देता कि दलित जातियोंमें ऐसा एक भी व्यक्ति न बचता जिसके बच्चोंकी पढ़ाई-लिखाईके लिए स्कूल न होते। लेकिन अभी तो मुझे उस शुभ दिनके लिए प्रतीक्षा ही करनी है।

लेकिन इस बीच क्या इन लोगोंको अपनी शक्ति और साधनोंके भरोसे ही छोड़ देता है? नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। मैंने अपने विनम्र तरीके से अपने 'पंचम' भाइयोंके लिए जो-कुछ कर सकता हूँ, किया है और आगे भी करता रहूँगा।

राष्ट्रके इन दलित लोगोंके लिए तीन रास्ते खुले हैं। अगर उनका धीरज छूट रहा हो तो वे इसके लिए दूसरोंको गुलाम बनाकर रखनेवाली सरकारसे सहायता माँग सकते हैं। उन्हें यह सहायता मिल भी जायेगी, लेकिन यह ताड़से छूटकर भाड़में गिरनेके समान होगा। आज 'पंचम' लोग गुलामोंके भी गुलाम हैं। अगर उन्होंने सरकारसे सहायता माँगी तो उनका उपयोग उनके अपने ही भाई-बन्दोंको दबानेके लिए किया जायेगा। आज उनके प्रति अपराध किया जा रहा है, लेकिन अगर वे सरकारकी सहायता लेंगे तो वे स्वयं ही दूसरोंके प्रति अपराध करनेवाले बन जायेंगे। मुसलमानोंने यह नुस्खा आजमाकर देखा, लेकिन वे विफल रहे। उन्होंने देखा कि उनकी हालत तो पहलेसे भी बदतर हो गई है। सिखोंने अनजाने यही काम किया, लेकिन वे असफल रहे। आज भारत में कोई भी समुदाय उतना असन्तुष्ट नहीं है जितने कि सिख हैं। इसलिए सरकारी सहायता इस समस्याका कोई समाधान नहीं है।

दूसरा रास्ता है हिन्दुत्वका परित्याग करके सामूहिक रूपसे इस्लाम या ईसाइयतको अंगीकार कर लेना, और अगर पार्थिव समृद्धिके लिए अपना धर्म बदलना सही होता तो मैं बेहिचक उन्हें ऐसा करनेकी सलाह दे देता। लेकिन धर्म तो हृदयकी चीज है, कोई भी भौतिक सुख-सुविधा ऐसी नहीं है जिसके कारण अपना धर्म छोड़ा जा सकता हो। अगर 'पंचम' समाजके साथ अमानवीय व्यवहार करना हिन्दुत्वका अंग होता तो हिन्दू धर्मका परित्याग कर देना उनका भी परम कर्त्तव्य होता और साथ ही मुझ-जैसे लोगोंका भी, जो धर्मको भी अन्ध-श्रद्धाका विषय नहीं बनाना चाहेंगे और धर्मके पवित्र नामपर हर बुराईको बरदाश्त नहीं कर लेंगे। लेकिन मेरे विचारसे, अस्पृश्यता हिन्दुत्वका अंग नहीं है। यह तो हिन्दुत्वके शरीरपर निकला हुआ एक अतिरिक्त मांस-पिंड है, जिसे हर सम्भव कोशिश करके काट फेंकना चाहिए। और ऐसे हिन्दू सुधारकोंकी बहुत बड़ी संख्या इस देशमें है जो पूरी लगनसे हिन्दुत्वको इस कलंकसे मुक्त करनेके लिए प्रयत्नशील हैं। इसलिए मेरे विचारसे धर्मपरिवर्तन भी इसका कोई उपाय नहीं है।

और तब अन्तमें रह जाता है आत्म-सहायता और आत्म-निर्भरताके साथ-साथ ऐसे पंचमेतर हिन्दुओंकी मदद लेनेका रास्ता जो कर्त्तव्य मानकर स्वेच्छासे मदद दें और यह न समझें कि वे कोई कृपाका कार्य कर रहे हैं। और यहीं असहयोगके प्रयोगकी बात आती है। श्री राजगोपालाचारी और श्री हनुमन्तरावने पत्र-लेखकको ठीक ही बताया कि मैं इस जानी-मानी बुराईको दूर करनेके लिए सुनियमित असहयोगका तरीका पसन्द करूँगा। लेकिन असहयोगका मतलब है दूसरोंकी सहायतापर निर्भर

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