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मुसलमानोंके घोषणापत्रकी आलोचना

वाइसराय महोदयको त्यागपत्र दे देना चाहिए, उसकी आलोचनामें उसने अपने लेखमें पूरा एक पैरा ही लिख दिया है।

'टाइम्स ऑफ इंडिया' इस कथनपर आपत्ति करता है कि ब्रिटिश साम्राज्य टर्कीको ऐसा दुश्मन मानकर व्यवहार न करे जो पूरी तरह मर चुका है। मेरा खयाल है, इस प्रार्थनापत्रके हस्ताक्षरकर्त्तोओंने अपने इस कथनके समर्थनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कारण तो बता ही दिया है। वे कहते हैं:

हम सादर निवेदन करते हैं कि टर्कीके साथ अपने व्यवहारमें ब्रिटिश सरकार भारतीय मुसलमानोंकी उचित और न्यायसंगत भावनाका खयाल रखनेको बँधी हुई है।

अगर भारतके सात करोड़ मुसलमान साम्राज्यमें साझीदार हैं तो मैं कहूँगा उनकी इच्छाको ही इस बातके लिए पर्याप्त कारण माना जाना चाहिए कि टर्कीको सजा न दी जाये। टर्कीने युद्धके दौरान क्या-कुछ किया, यह सब कहने की जरूरत नहीं। उसका दण्ड भी उसने भोगा है। 'टाइम्स' पूछता है कि किस मामलेमें टर्कीके साथ अन्य शत्रु-देशोंकी अपेक्षा बुरा बरताव किया गया है। मैंने तो समझा था कि यह तथ्य अपने-आपमें काफी स्पष्ट है। न तो जर्मनीके साथ वैसा बरताव किया गया है और न आस्ट्रिया तथा हंगरीके साथ, जैसा कि टर्कीके साथ किया गया है। इतने बड़े साम्राज्यको छिन्न-भिन्न करके सिर्फ राजधानीके ही एक हिस्सेतक सीमित कर दिया गया है, मानो वे सुलतानका मजाक उड़ाना चाहते हों। और यह सब भी इतनी अपमानजनक शतोंके अधीन किया गया है कि सुलतानकी बात तो जाने दीजिए, कोई सामान्य आत्मसम्मानी व्यक्ति भी कदाचित् उन्हें स्वीकार न करे।

'टाइम्स' ने अपनी बातको सही सिद्ध करने के लिए इस तथ्यको बहुत अधिक तूल देनेकी कोशिश की है कि प्रार्थनापत्रमें इस बातपर विचार नहीं किया गया है कि टर्कीने मित्र-राष्ट्रोंका साथ क्यों नहीं दिया; लेकिन इसमें कोई रहस्यकी बात तो नहीं थी। रूस मित्र-राष्ट्रोंमें शामिल था, और यह तथ्य ही इस बातके लिए काफी था कि टर्की मित्र-राष्ट्रोंके गुटमें शामिल न हो। युद्धके समय रूसका खतरा टर्कीकी ड्योढ़ीतक आ पहुँचा था। इस हालतमें टर्कीके लिए मित्र-राष्ट्रोंका साथ देना कोई आसान बात नहीं थी। इससे भी बड़ी बात यह थी कि स्वयं ग्रेट ब्रिटेनके मंतव्यमें सन्देह करने के लिए टर्कीके सामने पर्याप्त कारण था। उसे मालूम था कि बल्गेरियाई युद्धके समय उसके प्रति इंग्लैंडने कोई मित्रतापूर्ण कार्य नहीं किया था। इटलीके साथ युद्धके समय भी उसकी कोई सहायता नहीं की गई थी। फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि टर्कीने जो पक्ष चुना वह बुरा ही था। भारतके मुसलमान सजग हो गये थे और वे टर्कीको मदद देने के लिए तैयार थे। टर्कीके राजनयिक भरोसा कर सकते थे कि अगर वह मित्र-राष्ट्रोंके साथ रह जायेगा तो भारतीय मुसलमान ब्रिटेनको टर्कीका कोई अहित नहीं करने देंगे। लेकिन ये बुद्धिमानीकी बातें तो तब सूझ रही हैं जब सबकुछ हो गया। टर्कीने चुनाव करने में भूल की और उसे इसकी सजा भी मिल गई। उसको अब अपमानित करनेका मतलब भारतीय मुसलमानोंकी भावनाकी उपेक्षा करना

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