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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

होगा। ईश्वर करे, ब्रिटेन ऐसी कोई भूल न करे और इस तरह भारतके जाग्रत मुसलमानोंकी वफादारीका हकदार बना रहे।

'टाइम्स' का यह कहना कि शान्ति-सन्धिकी शर्तोमें आत्म-निर्णयके सिद्धान्तका बहुत सावधानीसे पालन किया गया है, अपने पाठकोंकी आँखोंमें धूल झोंकना है। अड्रियानोपल और थ्रेसको टर्की साम्राज्यसे अलग करके ग्रीसके साथ मिला देना क्या आत्म-निर्णयका नमूना है? वह कौन-सा आत्म-निर्णयका सिद्धान्त है जिसके अनुसार स्मर्ना ग्रीसको दे दिया गया है? क्या थ्रेस और स्मर्नाके निवासियोंने कभी ग्रीक संरक्षणकी माँग की थी?

मैं नहीं मानता कि अरबोंकी जो व्यवस्था की गई है, वह उन्हें पसन्द है। ये हेजाजके बादशाह और अमीर फैजल कौन हैं? क्या इन बादशाहों और अमीरोंको अरबोंने चुना है? ब्रिटेनने अरबोंका संरक्षण और शासन करनेका जो अधिकार प्राप्त कर लिया है, वह क्या उन्हें पसन्द है? जब सारा खेल खत्म हो जायेगा, उस समय यह आत्म-निर्णय शब्द ही लोगोंके लिए एक तीखा दंश बन जायेगा। सच तो यह है कि बहुत-से ऐसे लक्षण अब दिखाई भी देने लगे हैं, जिनसे प्रकट होता है कि अरब लोग तथा थ्रेस और स्मर्नोके निवासी अपने सम्बन्धमें की गई व्यवस्थाको पसन्द नहीं करते। टर्कीका शासन उन्हें भले ही पसन्द न हो, लेकिन वर्तमान व्यवस्था तो उन्हें और भी कम पसन्द है। टर्कीसे वे जो चाहे मंजूर करवा लेते, लेकिन अब इन आत्म-निर्णय करनेवाले लोगोंको मित्र-राष्ट्रोंकी "अप्रतिम शक्ति" अर्थात् ब्रिटिश सेना, बिलकुल विवश करके रखेगी। ब्रिटेनके सामने यह सीधा-सादा रास्ता खुला हुआ था कि वह टर्की साम्राज्यको अक्षुण्ण बनाये रखता और उससे सुशासनके लिए पूरी गारंटी ले लेता। लेकिन उसके प्रधान मन्त्रीने गुप्त सन्धियों, दोरुखी बातों और भ्रमोत्पादक कुचक्रोंका टेढा-मेढ़ा रास्ता ही चुना।

अब भी एक उपाय है। वह भारतको वास्तविक साझीदार माने; मुसलमानोंके सच्चे प्रतिनिधियोंको बुलाये, इन प्रतिनिधियोंको अरब और टर्की साम्राज्यके अन्य हिस्सोंमें भेजे और फिर उन सबसे सलाह-मशविरा करके कोई रास्ता सोच निकाले——ऐसा रास्ता, जिससे टर्कीका अपमान न हो और मुसलमानोंकी न्यायपूर्ण भावना तुष्ट हो जाये तथा साथ ही उस साम्राज्यमें जो जातियाँ शामिल हैं, उन्हें सच्चे अर्थोंमें आत्म-निर्णयका अधिकार मिल जाय। अगर इसी तरह कनाडा, आस्टेलिया या दक्षिण आफ्रिकाको सन्तुष्ट करनेकी जरूरत होती तो श्री लॉयड जॉर्ज[१]उनकी उपेक्षा न कर पाते, क्योंकि इन देशोंको तो राष्ट्रमंडलसे अलग होनेका अधिकार है लेकिन भारतकी नहीं है। अगर भारतकी भावनाओंका ब्रिटेनके लिए कोई महत्त्व ही न हो तो श्री जॉर्ज इसे साम्राज्यमें साझीदार कहकर इसका और अधिक अपमान न करें। मैं 'टाइम्स ऑफ इंडिया' को अपने दृष्टिकोणपर पूनविचार करनेके लिए आमन्त्रित करता हूँ और अनुरोध करता हूँ कि भारतके ये उच्चात्मा लोग जो

  1. १८६३-१९४५; ब्रिटिश राजनीतिश; प्रधान मंत्री १९१६-२२ ।