मैं यह माननेसे इनकार करता हूँ कि ये संस्थाएँ किसी भी तरहसे अपनी-अपनी संस्कृतियोंकी सच्ची प्रतिनिधि हैं। और अंग्रेजोंके हाथसे आज जितना खतरा इस्लामको है उतना ही खतरा हिन्दुओं और सिखोंको भी है। मैंने अलीगढ़के एक प्राध्यापकसे पूछा कि क्या जरूरत पड़नेपर आप ऐसा प्रचार कर सकते हैं कि पूर्ण स्वतन्त्रता भारतका अन्तिम लक्ष्य है, अथवा क्या विश्वविद्यालय गवर्नरका ब्रिटिश शासककी हैसियतसे अपने यहाँ स्वागत करनेसे इनकार कर सकता है। उन्होंने स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया कि ऐसा सम्भव नहीं। और फिर भी मैं कहूँगा कि भारतके अधिकांश विद्यार्थियोंके मनमें ब्रिटिश शासनके लिए प्रतिष्ठा या सम्मानका कोई भाव नहीं है। इस शासनसे वे बिलकुल ऊब चुके हैं। निश्चय ही इसके प्रति उनके मनमें कोई सद्भाव नहीं रह गया है। मैं तो कहूँगा कि लड़कोंको इस कृत्रिम वातावरणमें रखना उन्हें अपने धर्मसे विमुख होनेकी सीख देना है, और उन्हें वहाँ रखकर हम उनकी अपनी-अपनी संस्कृतिका बहुत बड़ा अपकार कर रहे हैं। हम यह नहीं चाहेंगे कि हमारा राष्ट्र दम्भियों और मिथ्याचारियोंका राष्ट्र बन जाये।
ब्रिटिश सरकारके क्या इरादे हैं, हम जानते हैं। इस हालतमें अगर हम जलियाँवालाके निर्दोष रक्तसे रँगे हाथों द्वारा दिये गये पैसोंमें से छोटी-सी रकम भी स्वीकार करते हैं, जो पैसा दरअसल हमारा ही है, तो यह हमारी पुंसत्वहीनता और अभारतीयताका सूचक होगा। अगर हम ऐसा करते हैं तब तो जिस डाकूने हमारी सारी सम्पत्ति लूट ली हो, हम उसके हाथोंसे भी निश्चय ही दान स्वीकार कर सकते हैं। इस सरकारने हमसे हमारा सम्मान छीना है और हमारे एक धर्मको खतरेमें डाल दिया है। मेरी नम्र सम्मतिमें ऐसे स्कूलोंमें शिक्षा प्राप्त करना पाप है, जिनका खर्च सरकार उठाती हो या जो सरकारके प्रभावमें हों।
इसलिए मैं बहिचक यह सलाह दे रहा हूँ कि इन सारी संस्थाओंको, किसी भी कीमतपर, शीघ्र ही नष्ट कर देना चाहिए। लेकिन अगर इन संस्थाओंके न्यासी, शिक्षक और माता-पिता या बच्चे एक होकर काम करेंगे तो हमें कुछ भी गँवाना नहीं पड़ेगा बल्कि प्राप्त बहुत-कुछ होगा।
मैं तो इन संस्थाओंका ढाँचा बदलनेको, आत्मा बदलनेको कह रहा हूँ; आत्मा बदलनेकी कोशिश नहीं कर रहा हूँ। जिस प्रकार हम पुराने पड़ गये शरीरका त्याग कर देते हैं उसी प्रकार जो संस्थाएँ पुरानी पड़ गई हैं, हमारी आवश्यकता पूरी करने लायक नहीं रह गई हैं, उन संस्थाओंको भी छोड़ देना चाहिए, और उनके बदले ऐसी नई संस्थाएँ स्थापित करनी चाहिए जो हमारी आवश्यकताएँ पूरी करनेकी दृष्टिसे ज्यादा उपयुक्त हों। जब राष्ट्र अपना कदम आगे बढ़ा रहा है तब अध्ययन व अध्यापनका काम करनेवाली संस्थाएँ, जो राष्ट्रके युवक समुदायका प्रतिनिधित्व करती हैं, पीछे कैसे रह सकती हैं। गुजरातमें ऐसे बहुत-से हाई स्कूलोंने, जिनकी उपलब्धियोंका इतिहास न्यूनाधिक गौरवमय ही है, सरकारी अनुदान और सरकारी शिक्षा-व्यवस्थासे जुड़े रहनेके मोहसे छुटकारा पा लिया है। और इससे उनका कुछ घाटा नहीं हुआ, बल्कि उनका स्वरूप हर दृष्टिसे अधिक निर्मल हो गया है। अब वहाँके न्यासी और