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भाषण : डाकोरमें

मैं तुमसे कहता हूँ कि सरकारसे असहयोग करो और मुसलमान भाइयोंके साथ सहयोग करो। असहयोग करानेके लिए तुम्हें मारकाट नहीं करनी है। जिसे उसमें शरीक न होना हो, उसे तुम मार-मारकर हकीम नहीं बना सकोगे। उससे तुम्हें नम्रता और विनयका व्यवहार करना चाहिए। वह तुम्हें लात मारे तो सहन कर लेना, तभी तुम असहयोग करा सकोगे। तुममें सचाई होगी, नम्रता होगी, तुम एकदिल होगे, तुम बहादुर बनोगे तो तुम्हें छोड़कर सरकारका साथ कौन दे सकेगा? ऐसे लोगोंको समझानेके लिए खुद बहादुर बनो और त्याग करो।

एक लाख गोरे तीस करोड़ लोगोंपर कैसे हुकूमत चला सकते हैं? कारण यह है कि हम गुलाम बन गये हैं। यदि हम यह कह दें कि भाई, आजसे हम गुलाम नहीं रहेंगे तब या तो वे चले जायेंगे या हमारे नौकर बनकर रहेंगे। परन्तु ऐसा कहनेकी शक्ति प्राप्त करनेकी पहली सीढ़ी यह है कि हम धारालों, भीलों, मुसलमानोंके साथ, ढेढ़ों और भंगियों, सभी जातियोंके साथ भाईचारा रखें, उन्हें भाई समझें उनका तिरस्कार न करें। मुसलमान गायको मारते हैं, इससे तुम्हें क्रोध आता है, परन्तु क्या हिन्दू गायको नहीं मारते? गायका दूध सूख जानेपर भी उसका खून खींच लेना, गायकी सन्तानके आर भोंकना भी गायकी हत्याके बराबर ही है। सदा ऐसी गोहत्या करनेवाले हिन्दू किस मुँहसे मुसलमान भाइयोंके पास जाकर यह कह सकते हैं कि हमारी गायको तुम क्यों मारते हो? गायको बचाना हो, तो हिन्दुओंको स्वयं अपनी शराफत दिखानी चाहिए। मुझे तो मुसलमानसे ऐसी याचना करने जाते शर्म आती है। और तुम्हारी गायको अंग्रेज तो रोज खाते हैं। अंग्रेज सिपाहियोंका 'बीफ'——गोमांस——के बिना तो घड़ीभर भी नहीं चलता। तुम मुसलमानोंका तिरस्कार क्यों करते हो? मुसलमानोंमें तो ईश्वरका डर भी है। तुम थोड़े दिन अली भाइयोंके साथ रहो, तो तुम्हें पता चले कि वे ईश्वरसे कितना डरते हैं। मुसलमानोंके साथ एकदिल हो जाओ तो स्वराज्य मिलना थोड़े ही समयकी बात है।

अपने लड़कोंको पाठशालाओंसे हटा लो, धारा सभाओंमें प्रतिनिधि मत भेजो, चरखेपर सूत कातो और खादीके कपड़े पहनो।

अन्तमें यही कहना है कि हमें लड़कोंको शिक्षा देनी है, नई अदालतें चलानी हैं, उनके लिए रुपया चाहिए। तुम यथाशक्ति रुपया दो। तुमसे रुपया लेना मुझे कठिन लगता है। मैं ऐसे बहुत-से नौजवान नहीं देखता, जिनके हाथोंमें रुपया सौंपकर निर्भय रह सकूँ। तुम्हें असहयोग में मदद करनी हो तो अभी जो स्वयंसेवक घूमेंगे, उन्हें एक पैसेसे लगाकर तुम्हें जितना देना हो, उतना देना। असहयोगके लिए एक-एक पैसा तो कमसे-कम हरएक दे ही सकता है। और कुछ नहीं तो प्रत्येक मनुष्य कमसे-कम कताई-बुनाई तो कर ही सकता है। यदि तुम यह मानते हो कि मिलका कपड़ा पहनकर स्वदेशीका पालन होता है, तो यह भूल है। मिलें भारतके लिए पूरा कपड़ा नहीं बना सकतीं। खादीमें ही सौन्दर्य है। बारीक मलमल गुलामीकी निशानी है, इसलिए खादी मुझे हल्की, फूल-सी लगती है और पतली मलमल भारी लगती है। तुम अपने लड़कोंको घर ही बिठा दो। वे कुछ समय न पढ़ें; तो हर्ज नहीं। घर बैठे उन्हें भगवानका भजन करने दो।