आधे वस्त्रोंमें वन-वन घूमनेवाली दमयन्तीको, चौदह वर्ष वनवासमें बितानेवाली सीताजीको हम पूजते हैं। हरिश्चन्द्रकी रानीने दासत्व किया था, सो क्या वह बारीक कपड़े पहनती होगी? उस समय तो पत्तोंसे लाज ढकते थे। ऊपरी टीम-टामसे सुन्दरताका प्रदर्शन करना वेश्याका लक्षण है। आप अपना धर्म पालना चाहती हैं, तो पहली सीढ़ी यह है कि आप स्वदेशी धर्म समझ लें। अपने ही हाथका कता हुआ सूत और अपने ही घरके पुरुषोंका गाते-गाते बुना हुआ कपड़ा काममें लेनेका नाम ही स्वदेशी धर्म है। मैं स्वयं सचमुच खूबसूरत हूँ, क्योंकि मेरे पहने हुए कपड़ोंमें बहनोंके हाथका कता हुआ और पुरुषों द्वारा प्रेमसे बुना हुआ सूत है। यदि तुम्हें रावणराज्यसे स्वतन्त्र होकर रामराज्य स्थापित करना हो, तो तुम स्वदेशी धर्म अंगीकार करो, चरखको घरमें जारी करो। चरखा सिखानेवाली अब तो तुम्हें बहुत मिल जायेंगी। प्रत्येक बहन ईश्वर-भजन करती-करती कमसे-कम एक घंटा तो काते ही। उस सुतसे तुम कपड़ा बुनवा लेना।
विदेशी मलमल छोड़कर हाथका बुना हुआ कपड़ा पहनना पहले तुम्हें भारी तो अवश्य पड़ेगा। बम्बईकी कुछ बहनोंने मेरे सामने शिकायत की कि हमारी साड़ी पहले चालीस तोलेसे कम होती थी, सो अब सत्तर तोलेसे बढ़ जाती है। मैंने उन्हें जरा आलंकारिक भाषामें उत्तर दिया कि कपड़ोंका भार घटाकर तुमने आजतक अपना भार हलका किया है। स्त्रियाँ नो मासतक गर्भका भार आनन्दके साथ उठाती हैं, प्रसव-कालकी भारी वेदना सहर्ष सहन करती हैं। आज तो भारतवर्षका प्रसवकाल है। इस नव भारतके प्रसव-कालमें तुम मोटे कपड़का भार उठानेको भी तैयार नहीं होगी? यह बोझा उठा लोगी, तभी तुम भारतको स्वतन्त्र बना सकोगी। भारतको नया जन्म देना हो, तो प्रत्येक स्त्रीको नौ महीने तो क्या, नौ वर्ष भी भारी खादीका भार उठाना पड़ेगा।
दूसरे, तुम जानती हो कि तुम अपने बच्चोंको कहाँ पढ़ने भेजती हो? तुम उन्हें रावणराज्यकी पाठशालाओंमें भेजती हो। धार्मिक वैष्णव कभी अपने बालकोंको अधर्मी राज्यकी पाठशालाओंमें भेजेगा? क्या मैं कभी किसी पाखण्डीसे 'गीता' या 'भागवत' पढ़ने जाऊँगा? आजकलके स्कूल पाखण्डी राज्यके हैं। जबतक ये स्कूल हमारे न हो जायें, तबतक के लिए तुम अपने बच्चोंको उनमें से निकाल लो। उन्हें 'रामरक्षा' सिखाओ, ईश्वरके भजन सिखाओ अथवा अपने गाँवके समझदार लोगोंसे जाकर कहो कि 'हमारे बच्चोंको पढ़ाओ', परन्तु इन स्कूलोंमें तो तुम अपने बच्चोंको हरगिज मत भेजो।
आज एक बहन मेरे सामने पाँच रुपये रख गई। अबतक मैंने इस ढंगसे दान नहीं लिया। जितना मुझे चाहिए उतना मित्रोंसे ही ले लेता हूँ। परन्तु अब तो मुझे स्वराज्य स्थापित करना है और अनेक पाठशालाएँ चलानी हैं; वे इस तरह मित्रोंसे रुपया लेकर तो चलाई नहीं जा सकतीं। तुम्हें रामका राज्य चाहिए, तो उसके लिए प्रयास करना ही चाहिए। जितनी शक्ति हो उतना दान तुम देना; उसका उपयोग मैं स्वदेशीके लिए, तुम्हारे बच्चोंके लिए पाठशालाएँ खोलनेमें करूँगा। इस समय तो डाकोरनाथजीको लेकर हममें से कुछ पाखण्डी लोग अदालतों में पहुँचे हैं! क्या देवताओं-