चिथड़े पहनने पड़ेंगे। आज भी मैं तुम्हें देशमें हजारों दमयन्तियाँ दिखा सकता हूँ। मैंने एक स्त्रीसे नहाने को कहा तो वह कहती है, "मुझे दूसरा कपड़ा पहनने को दें तो नहाऊँ।" देशकी इस वक्त ऐसी कठिन दशा है।
स्वराज्य स्थापित करने, नई पाठशालाएँ खोलने के लिए रुपया चाहिए। वह मैं वृक्षोंसे तोड़कर नहीं ला सकता। डाकोरमें जब मैंने पहले-पहल यह भिक्षा माँगी, तब एक पीसनेवाली स्त्रीने अपनी अँगूठी उतारकर दे दी, दो-तीन अन्य स्त्रियोंने अंगूठियाँ, कंठियाँ वगैरह दीं। एक भाईने सोनेका कंकण निकालकर दिया। उसका विश्वास था कि जो एक पैसा देता है उसे बदलेमें दो मिलते हैं।
यह कलियुग है। जहाँ-तहाँ पाखण्ड है। रुपया माँगे बिना काम चला सकूँ, तो मैं बड़ा खुश होऊँ और कदापि न माँगूँ। मैं या मेरे साथी यथासम्भव बुरे काममें रुपया नहीं लगायेंगे। फिर भी तुम मेरा कहना मानते हो, तभी देना।
दीवाली, राम सीताजीको छुड़ाकर लाये, इसकी खुशीका उत्सव है। रामने रावणपर जैसी विजय प्राप्त की, वैसी हम फिर प्राप्त न कर सकें, तबतक हमें ऐश-आराम करने या शृंगार करने, स्वाद लेने या पटाखे छुड़ानेका अधिकार नहीं है।
यह पैसा[१] लखपतियोंके लाखों रुपयोंके दानसे अधिक पवित्र है। ताँबेके हर पैसे के साथ अहमदाबादकी बहनोंकी आत्मा जुड़ी हुई है, उनकी देशभक्ति समाई हुई है। इन पवित्र पैसोंसे में देशके बालकोंको शिक्षा दूँगा। इन पवित्र पाई-पैसोंके दानपर स्वराज्यको घर लाऊँगा।
- [गुजराती से]
- नवजीवन, ३-११-१९२०
२२६. पत्र : छगनलाल गांधीको
सोमवार, [अक्तूबर १९२०]
- तुम्हारा पत्र मिल।
भाई जुगतरामको चालीस रुपये देना। मैं तुमसे इस बारे में कहना भूल गया था। अबसे उनका वेतन 'नवजीवन' [के खाते] से नहीं दिया जायेगा; और अब यह वेतन शाला में से दिया जाया करेगा।
- ↑ गांधीजीको अपीलपर दिये गये कुछ पैसे