२२९. भाषण : मेहमदाबादमें
१ नवम्बर, १९२०
मेरी इच्छा आज आपसे बहुत-सी बातें करनेकी है। परन्तु मैं उसमें ज्यादा समय नहीं लेना चाहता। आजका काल हिन्दुस्तानके लिए कठिन काल है। देशकी खराब हालत मैं बयान नहीं कर सकता। मैं अभी बहनोंसे कह आया हूँ[१]कि इस देशमें जो राज्य चल रहा है, वह राक्षसी राज्य है, रावणराज्य है, उसमें शैतानियत भरी है। इसके हमारे पास दो बड़े उदाहरण हैं: पंजाब और खिलाफत। खिलाफतके मामलेमें दिये हुए वचन पाले नहीं गये; धोखा दिया गया। पंजाबमें बिना कारण हत्याएँ की गई। जिसका स्वभाव राक्षसी हो, शैतानी हो, वही ऐसे काम कर सकता है। ऐसे राज्यको तुलसीदासजीने राक्षसी राज्य कहा है। उसके साथ सहयोग नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं परन्तु असहयोग करना धर्म और कर्त्तव्य है। ऐसी सर- कारसे हम सहायता लें या उसकी कृपा स्वीकार करें, तो हम उसके किये हुए अन्याय और पापमें शरीक होते हैं। जबतक उसके पापमें हमारा हिस्सा रहेगा, तबतक जनता सुखी नहीं हो सकती।
यह असहयोग कैसे हो सकता है? एक रास्ता तो यह है कि हम सबमें आपसमें सहयोग होना चाहिए। देशके तमाम लोगोंमें, हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, सबमें पूरी तरह सहयोग होना चाहिए। राक्षस दूसरोंको आपसमें लड़ाकर ही राज्य कर सकता है। हमारी सरकारने यही किया है। उसने हिन्दू-मुसलमानोंको लड़ाया। मद्रास प्रान्तमें ब्राह्मण-अब्राह्मणोंको लड़ाया। उससे हो सके तो यहाँ भी ऐसी लड़ाई कराये। मेरे पास तो पत्र आ रहे हैं। ढेढ़ और भंगी मुझसे पूछ रहे हैं कि असहयोगमें हमारा स्थान कहाँ होगा? मैं इसका अर्थ समझ गया हूँ। और इसलिए कहता हूँ कि जबतक हम एकदिल न हो जायें, तबतक असहयोग असम्भव है। एकदिल हम पाखण्डसे नहीं हो सकते। हम एक-दूसरेके साथ न्याय करें, तभी एकदिल होना सम्भव है।
इसके लिए हममें कुर्बानी करनेकी ताकत चाहिए, स्वार्थ-त्याग करनेकी शक्ति होनी चाहिए; हमें मरना आना चाहिए। हम मारकर, मकानोंको जलाकर, रेलकी पटरियाँ उखाड़कर स्वराज्य नहीं ले सकेंगे। स्वराज्य लेना हो तो हमें पवित्र बनना चाहिए। पवित्र बननेका अर्थ है, जितेन्द्रिय बनना।
जबतक हममें से असत्य, छल-कपट नहीं चला जाता, तबतक हम काम नहीं कर सकेंगे। अहमदाबादमें बकरोंका वध रोकनेके लिए किये गये प्रयत्नका उदाहरण ताजा ही है। वहाँ एक पाखण्डी मौलवीने लोगोंको बहकाना शुरू किया। बारह-बारह बजेतक उसने सभाएँ कीं। यह जाहिर किया कि मैं गांधीकी तरफसे आया हूँ, उनके
- ↑ देखिए "भाषण : स्त्रियोंकी सभा, डाकोरमें", २७-१०-१९२० ।