यदि ऐसे दो-चार सौ आदमी छः हजारके विरुद्ध होंगे तो इससे उन्हें क्या लाभ होगा? आप हिन्दू-मुसलमान एक होकर रहें, आपको मेरी यही सलाह है।
मैं काम करनेके लिए दो शर्तें बता चुका हूँ। एक तो सहिष्णुता अथवा अहिंसा-धर्म। यह मान लें कि वह दुर्बलोंका धर्म है, तो भी जबतक आपमें तलवार चलानेकी शक्ति नहीं आ जाती, तबतक दूसरा उपाय बताया ही नहीं जा सकता। दूसरी शर्त यह है कि हिन्दू-मुसलमान, देशकी तमाम कौमें एकदिल होनी चाहिए। इन दो शर्तोंका पालन करो, तभी आप असहयोग कर सकते हैं। धारा सभाओंमें प्रतिनिधि न भेजना और पाठशालाओंसे लड़कोंको हटा लेना असहयोगकी पहली सीढ़ी है। आप इतना कर लें, तो समझिये कि स्वराज्य मिल गया।
सरकारी नौकरोंका डर न रखो। उनसे हमें वैर नहीं है; हमें तो उन्हें प्रेमसे, मुहब्बतसे वशमें करना है। फिर आपको डरना नहीं होगा।
अब दो बातें करनेको रह जाती हैं। आप अहमदाबादसे कपड़ा मँगवाते हैं। मेहमदाबादमें पहले सुन्दर कपड़ा बनता था, परन्तु अब वह धन्धा करनेवाले नहीं रहे। आप छः हजार आदमी चाहें तो क्या नहीं कर सकते? आपको मिलका कपड़ा क्यों चाहिए? आपके घर आपकी मिलें हैं। खाना आप होटलसे नहीं मँगवाते, तो कपड़ा क्यों बाहरसे मँगवाते हैं?
आप मिलका कपड़ा न लें, तो मंगलदास सेठ या टाटाकी[१]मिलें बन्द नहीं हो जायेंगी। वह माल तो गरीबों के लिए है। आप उनके पेटपर लात नहीं मार सकते। रह गया विलायती माल। उसे तो हमें हराम ही समझना चाहिए। हम पराये वस्त्र नहीं पहन सकते। जैसे कोई पुरुष परस्त्रीपर नजर डाले तो वह व्यभिचार है, वैसे ही पराये देशके कपड़ेपर दृष्टिपात करना भी पाप है। जबतक हम कपड़ेके लिए इस सरकारके गुलाम हैं, तबतक हम उससे स्वतन्त्र नहीं हो सकते। जापानका माल काममें लेना भी विलायती मालके बराबर ही है, क्योंकि इस हुकूमतके जहाजों द्वारा ही वह माल यहाँ आता है। इस सल्तनतने चारों ओरसे देशपर घेरा डाल रखा है। इसलिए मेरी सलाह है कि आप इतिहासका नया अध्याय खोलें। करोड़ों लोगोंके लिए शायद मुश्किल होगा, परन्तु अपने गाँवकी हदतक आप स्वावलम्बी बन सकते हैं। अनाज तो आपको मँगाना नहीं पड़ता। खेड़ा जिलेमें अनाजकी कमी नहीं हो सकती; परन्तु अपने वस्त्र भी यहीं पैदा करो। इतना ही नहीं, अधिक पैदा करके आसपास भजो। फिर म्युनिसिपैलिटीके कामके लिए बारह हजार रुपये निकालना आपके लिए कठिन नहीं होगा।
अब मैं रुपये की बातपर आता हूँ। इतने अधिक काम करते हैं, इसलिए रुपया अवश्य चाहिए। परन्तु सबसे अधिक कठिनाई मुझे रुपया इकट्ठा करनेमें होती है। चंदा जमा करनेवाले आदमी अप्रामाणिक मिलते हैं, इससे मैं काँपता हूँ। परन्तु रुपया तो चाहिए ही। इसलिए विवश होकर मैंने हाथ फैलाया है। मैं यह काम केवल करोड़पतियों द्वारा नहीं चलाना चाहता। मैं तो भंगी से भी दान लूँगा। श्रद्धासे दिया हुआ
- ↑ सर दोराबजी टाटा (१८५९–१९३२); बम्बइके मिल-मालिक।