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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/४६५

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भाषण : भड़ौंचमें

खयाल है कि यह पापमय है। मालवीयजी मेरे बड़े भाईके समान हैं। शास्त्रीजीके लिए मेरे मनमें आदर है, तो भी मुझे उनसे लड़ाई करनी ही चाहिए। असहयोग कैसे करना चाहिए, यह तो कांग्रेसने बता दिया है; मुस्लिम लीगने बता दिया है और सिख लीगने भी बता दिया है।

असहयोग करनेकी दो शर्तें हैं। उनमें से एक तो हिन्दू-मुसलमानोंकी एकता है। हिन्दू-मुसलमान अर्थात् सब जातियोंकी एकता। यह हिन्दू-मुसलमानोंका तो मैंने एक जग-प्रसिद्ध दृष्टान्त लिया है। इन दोनोंमें बहुत समय से अविश्वास है, इसलिए जबतक हिन्दू या मुसलमान लड़ते रहेंगे, तबतक हमें विजय प्राप्त नहीं होगी। ऐसे ही प्रेमसे पारसी वगैरहको वशमें कर लेना उचित है। उन्हें राक्षसी प्रवृत्ति अर्थात् हत्या आदिके द्वारा वशमें कर सकते हैं, परन्तु तब हमें अस्सी हजार पारसियों का नाश करना पड़ेगा। हमें तो उन्हें प्रेमसे ही वशमें करना उचित है। हिन्दू या मुसलमान सिखोंको दबायें तो भी हम स्वतन्त्रता नहीं ले सकेंगे। अभी-अभी जैन भी कहने लगे हैं कि हम हिन्दू नहीं है, तो क्या हम उन्हें कुचल देंगे? सबलकी सवलता प्रेमसे जीत लेनमें है, मदपूर्वक कुचल डालने में नहीं। इसलिए सबसे पहला काम यह है कि सब धर्मोमें एकता रखी जाये।

हमारा दूसरा साधन है योजना-शक्ति। जबतक हममें योजना-शक्ति नहीं आयेगी, तबतक असहयोग असम्भव है।

दूसरी आवश्यकता है दया की। हत्याका तो विचार ही नहीं आना चाहिए। दयाके बदले क्रूरता बरतोगे, तो भी आपका काम नहीं होगा। तलवार लोगे, तो आपकी तलवारके टुकड़े हो जायेंगे। देशको बचा सकते हो, तो आपको अपनी तल-वार मुबारक हो; परन्तु यह असम्भव है। सरकारके प्रति एक भी खराब शब्द मत कहिये; गालियाँ देना छोड़ दीजिये। सहयोगवादी जो कहें उसे अदब से सुन लीजिये, परन्तु अपने इनकार पर डटे रहिये। यह इनकार सौ रोगोंकी एक दवा है। यह असहयोगका दूसरा नाम है।

असहयोगको सफल बनानेके लिए आपको दो महान् बलिदान देने हैं। पहला शिक्षाके मामलेमें। आज भारतमें शिक्षाका प्रश्न सबसे बड़ा प्रश्न बन गया है। दूसरा बलिदान धारा सभाओंका त्याग करना है। असहयोग अभी तक लोग——आम जनता——ही कर रही है। विशेष वर्ग बिलकुल नहीं करता। उससे कराना हो तो हम अपने कौशल से करा सकते हैं। हम सबके हस्ताक्षरसे उन्हें एक नोटिस दे दें कि वे हमारी तरफसे धारा सभामें नहीं जा सकते, तो वे नहीं जा सकेंगे। परन्तु शिक्षामें माँ-बाप, विद्यार्थी, शिक्षक परेशान हों, तो उसका क्या हो? भावी सन्ततिको गुलामीसे छूटना ही चाहिए। बुजुर्गोंका यह फर्ज है कि उन्हें स्वतन्त्र कर दिया जाये। माँ-बाप और शिक्षक भावी पीढ़ीके लिए इतनी स्वतन्त्रता किसी भी तरह कर दें। रुपयेकी कमीके कारण आप राष्ट्रीय शिक्षाको क्षणभर भी मत रोकिये। कोई यह पूछेगा कि सरकार कानून बनाकर बाधा डाले तो? इस बारेमें मैं एक शब्द भी नहीं कहना चाहता, क्योंकि वह निरर्थक है। यदि आपका खयाल हो कि इस प्रकार हमारा क्षेत्र