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अलीगढ़के छात्रोंके माता-पिताओंके नाम

हुए मुझे पत्र लिखा है और ये सज्जन भी सरकारी नौकर हैं। आपत्तिका आधार यह है कि उनके बच्चोंने स्कूल और कालेज छोड़ते समय उनसे सलाहतक नहीं ली। दरअसल मैंने तो लड़कोंको यही सलाह दी है कि उन्हें किसी निर्णयपर पहुँचने से पूर्व स्कूल या कालेज छोड़नेके सवालपर अपने माता-पिता से बातचीत कर लेनी चाहिए।

स्वयं मैंने बीसियों सभाओंमें हजारों माता-पिताओंसे अनुरोध किया है, लेकिन तब किसी माता-पिताने सरकारी नियंत्रणमें चलनेवाले स्कूल छोड़नेके सुझावका प्रतिवाद नहीं किया। सच तो यह है कि उन्होंने आश्चर्यजनक रूपसे एकमत होकर असहयोगका प्रस्ताव पास किया, जिसमें स्कूलोंसे सम्बन्धित बात भी थी। इसलिए मैं मानता हूँ कि दूसरोंकी तरह अलीगढ़के बच्चोंके माता-पिता भी इस बातको जानते हैं कि उनके बच्चोंको सरकारके नियंत्रणमें चलनेवाले स्कूलों और कालेजोंको छोड़ देना चाहिए; क्योंकि इनका नियंत्रण वही सरकार कर रही है जो भारतके मुसलमानोंके साथ छल करनेमें शामिल रही है और जिसने पंजाबमें बर्बरतापूर्ण व्यवहार करके बड़ी हृदयहीनतासे इस राष्ट्रका अपमान किया है।

आशा है आप यह भी जानते होंगे कि हमारे बच्चोंकी शिक्षाकी उपेक्षा न हो, इस बात की चिन्ता मुझे भी उतनी ही है जितनी कि किसी औरको हो सकती है। लेकिन बेशक, मुझे औरोंसे अधिक इस बातकी चिन्ता जरूर है कि उन्हें शिक्षाका यह दान पवित्र हाथोंसे मिले। जिस सरकारको हम हृदयसे नापसन्द करते हैं, उससे शिक्षाके लिए अनुदान प्राप्त करना मुझे तो हम सबकी पौरुषहीनता लगती है। मेरी नम्र सम्मतिमें तो यह चीज बेईमानी और गैर-वफादारीसे भी भरी हुई है।

क्या यह बेहतर नहीं कि हमारे बच्चे, भले ही झोपड़ियों या पेड़की छायामें किन्तु स्वतन्त्र वातावरणमें, ऐसे शिक्षकोंसे शिक्षा प्राप्त करें जो स्वयं स्वतन्त्र विचार रखते हों और हमारे बच्चोंमें भी स्वतन्त्रताकी भावना भर सकते हों? अगर आप लोग यह अनुभव कर लेते कि हमारी प्यारी मातृभूमिके भाग्य-विधाता हम माता-पिता नहीं बल्कि हमारे बच्चे हैं, तो कितना अच्छा होता। जिस दासताके अभिशापने हमें पेटके बल रेंगने को मजबूर किया, क्या हम उन्हें उसके अभिशापसे मुक्त नहीं करायेंगे? हम कमजोर हैं, इसलिए हो सकता है, हममें यह जुआ उतार फेंकनेकी शक्ति या इच्छा न हो। लेकिन क्या हम इतनी बुद्धिमानी नहीं दिखायेंगे कि अपने बच्चोंके लिए यह अभिशापपूर्ण विरासत न छोड़ें।

स्वतन्त्र युवा और युवतियोंके रूपमें अपना अध्ययन जारी रखनेसे बच्चोंका कुछ नुकसान नहीं होगा। निश्चय ही, उन्हें सरकारी विश्वविद्यालयोंकी डिग्रियोंकी जरूरत नहीं है। और अगर हम अपने बच्चोंके प्रति मोहको छोड़ दें तो उनकी शिक्षाके लिए पैसा जुटानेकी समस्या, दरअसल, बहुत आसान हो जाये। अगर राष्ट्र एक हफ्तेतक आत्म-त्यागसे काम ले तो उससे उसके स्कूली बच्चोंके लिए एक सालका खर्च निकल आये। बल्कि हिन्दुओं और मुसलमानोंके जो धर्मार्थ और परमार्थ कोष चल रहे हैं, उनके सहारे हफ्ते-भरके आत्म-त्यागके बिना भी हम अपने बच्चोंकी शिक्षाकी व्यवस्था कर सकते हैं। वर्तमान प्रयास और कुछ नहीं, यह निश्चित करनेके लिए