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लखनऊके भाषण

है। उन्होंने सभामें कोई विरोध प्रगट नहीं किया; मुझसे कोई शिकायत नहीं की। वे जानते हैं कि मौलाना साहबका मैं बड़ा सम्मान करता हूँ; अगर उनके भाषणमें उस अपराधको क्षम्य मानने या ईसाइयतका किसी तरहसे अपमान करनेकी कोई बात होती तो मैं खुद ही उसका प्रतिवाद करता। दुनियाके महान् धर्मोमें से कोई व्यक्ति किसी धर्मका अपमान करे तो मैं उसमें भागी नहीं बन सकता। इसके अतिरिक्त श्री डगलस अपनी वकालत छोड़कर असहयोगमें सिर्फ खिलाफतके सवालको लेकर ही शामिल नहीं हुए थे; पंजाबमें किये गये अन्यायका भी उन्हें उतना ही ध्यान था; और उनका संकल्प स्वराज्य मिलने तक असहयोगकी प्रगतिके साथ कदम मिलाकर चलते रहनेका था। क्या अब श्री डगलस पंजाबके अन्यायका निराकरण या स्वराज्य नहीं चाहते? और क्या सिर्फ इसी कारण खिलाफत आन्दोलनसे उनका अलग हो जाना ठीक है कि एक मौलवीने, चाहे वह कितना भी प्रतिष्ठित क्यों न हो, अपने भाषणसे उनके मनको चोट पहुँचाई? निश्चय ही, श्री डगलसके इस रवैयेमें कहीं कोई भ्रम है और समझ में न आने जैसी कोई ऐसी बात भी है। खैर, में इतना कहकर इस बातको यहीं समाप्त करता हूँ कि श्री डगलस अगर ठीक समझें तो अपनी बातको और स्पष्ट करके समझायें[१]और आन्दोलनसे अलग होनेके अधिक संगत कारण बताकर उसका औचित्य सिद्ध करें।

अब उन भाषणों और विशेषकर मौलाना अब्दुल बारी साहबके भाषणपर विचार करना जरूरी है। रिपोर्टरका काम यों भी बड़ा कठिन होता है। लेकिन जब उसे किसी भाषणका विवरण आशुलिपिमें न लिखकर साधारण लिपिमें अनुवाद करते हुए पूरा-पूरा लिखना पड़े और साथ ही जब वह उस भाषाका अच्छा जानकार भी न हो, जिसमें भाषण दिया जा रहा है तो यह काम और भी कठिन हो जाता है। मेरे सहयोगी श्री महादेव देसाईको मौलाना साहबका भाषण नोट करते समय इसी कठि- नाईका सामना करना पड़ा था। 'नवजीवन' में प्रकाशित हो जानेके बाद मैंने वह विवरण देखा और देखकर चिन्तित हुआ। मैंने सोचा कि वे बिलकुल अनजाने एक बहुत बड़ी भूल कर गये हैं। रिपोर्टमें मौलाना साहबके साथ न्याय नहीं हुआ है। उनके मुँहसे ऐसा कहलाया गया है कि श्री विलोबीका हत्यारा शहीद है, और मैं (मौलाना साहब) गांधीजी द्वारा कही गई बातोंके मुकाबलेमें 'अलकुरान' की बातोंको तरजीह देता हूँ। मैं श्री महादेव देसाईको अपने उत्तम और सर्वाधिक सावधान सह- योगियों में से मानता हूँ। लेकिन ऐसे लोगोंसे भी, पूरी सदाशयताके बावजूद, कभी-कभी गलती हो सकती है।

जहाँतक मुझे स्मरण है, मौलाना अब्दुल बारी साहबने यह कहा था कि "दूसरोंकी तरह मुझे भी श्री विलोबीकी हत्या बुरी लगी है। मैं जानता हूँ कि इससे खिलाफतके उद्देश्य की बहुत क्षति हुई है। मैं भलीभाँति जानता हूँ कि अगर इस हत्याके सम्बन्धमें मुझे पहलेसे कोई खबर होती तो मैं उसे रोकने की कोशिश करता। अगर दूसरे लोग भी मालूम हो जानेपर उसके आड़े आते तो मैं उसे ठीक मानता।

  1. देखिए "श्री डगलसका उत्तर", १७-११-१९२० ।