लेकिन मुझसे कुछ मित्रोंने हत्यारेके लिए जहन्नुमकी बद्दुआ करने को कहा। यह बिलकुल दूसरी बात है। एक धार्मिक व्यक्तिके नाते मुझे ऐसा करना असम्भव लगा। मैं नहीं जानता कि यह हत्या कैसे हुई और इसके पीछे क्या उद्देश्य थे। इसलिए मृत्युके बाद हत्यारेका क्या होगा, यह स्पष्टतः उसके और खुदाके बीचकी चीज है, और अगर कोई पहलेसे ही खुदाके फैसलेके बारेमें अन्दाजा लगाये तो यह गुस्ताखी ही होगी। श्री विलोबी काफिर जातिके थे और अगर जिहादकी घोषणा की गई होती तो शत्रुजाति के किसी भी व्यक्तिको इस्लामकी तलवारके घाट उतारना उचित ही होता। लेकिन हमने तलवार न उठानेका निश्चय कर लिया है, इसलिए [अब] शत्रु-जातिके किसी भी व्यक्तिकी जान लेना किसी मुसलमानके लिए उचित नहीं है। हमने श्री गांधी की असहयोग करनेकी सलाह मान ली है। क्योंकि इसकी पुष्टिमें 'कुरान' और स्वयं हजरत मुहम्मदके जीवनमें काफी प्रमाण मिलते हैं। और जबतक असहयोग चल रहा है, मैं पूरी तरह श्री गांधी के मार्गदर्शन में चलूँगा। मुझे मूर्तिपूजक हिन्दुओं से मैत्री करनेके कारण फटकारा जाता है। लेकिन मेरी यह निश्चित मान्यता है कि जिन काफिरोंने इस्लामको संकटमें डालनेके लिए कुछ भी उठा नहीं रखा, उन काफिरोंके मुकाबले हिन्दुओंसे मैत्री करने और यहाँतक कि गोवधसे भी अलग रहनेका मुसलमानोंको पूरा अधिकार है।"
यह है मौलाना साहब के भाषणका सार। निश्चय ही, भाषणमें कड़वाहट बहुत थी। मौलाना अब्दुल बारी-जैसे धार्मिक आस्थावाले किसी व्यक्तिको अगर अपने धार्मिक सम्मानपर आँच आती दिखे तो भला उसके भाषण में कड़वाहट होनेपर शिकायत कौन कर सकता है? व्यक्तिशः मुझे तो किसीके लिए भी काफिर शब्दका प्रयोग करना उतना ही बुरा लगता है जितना किसी हिन्दू द्वारा किसीके लिए म्लेच्छ या अनार्य शब्दका प्रयोग करना बुरा लगता है। लेकिन जिन शब्दोंके प्रयोगकी मुसलमानों और हिन्दुओंको बचपनसे ही इतनी लत लग गई है, उसके लिए मैं किसी मुसलमान या हिन्दूसे झगड़नेको तैयार नहीं हूँ। जैसे-जैसे अलग-अलग धन्धों और मजहबोंके लोगोंके बीच मैत्री बढ़ती जायेगी, वैसे-वैसे निश्चय ही ऐसे शब्दोंका प्रयोग बन्द होता जायेगा। क्या सिर्फ इस कारणसे पादरी हेबर[१]-जैसे व्यक्तिकी विद्वत्ता और नेकीसे इनकार किया जा सकता है कि उन्होंने हिन्दुओंको 'हीदन'[२]कहा और इसलिए उन्हें दयनीय तक बताया है? "मनुष्य ही क्रूर है"[३]——ये शब्द पूरे मानव-समाजके लिए कहे गये थे; और आज भी प्रार्थना के समय कई ईसाई गिरजोंमें इन शब्दोंका उच्चार किया जाता है। इसलिए मुझे तो उक्त भाषणमें श्री डगलसके इस निर्णयका कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता।
मौलाना शौकत अलीका भाषण तो और भी निर्दोष था। उन्होंने कहा था कि श्री विलोबीकी हत्याका जितना दुःख मुझे है, उतना और किसीको नहीं हो सकता।