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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

एक सदस्यको छोड़कर सबने उसे बारीकी से देखा है। विवरण पाँच सदस्योंमें से चार सदस्योंके प्रौढ़ विचार-विनिमयका नतीजा है। तथापि यह तो कहना ही पड़ेगा कि वह एक सर्वसम्मत विवरण नहीं है। सदस्योंने सोचा कि विरोधी विवरण उपस्थित करनेकी बजाय यह अधिक अच्छा होगा कि एक कामचलाऊ योजना प्रस्तुत की जाये और प्रत्येक सदस्यको विभिन्न मामलोंपर असहमत होनेकी परिस्थितिमें अपना मत व्यक्त करनेकी स्वतन्त्रता दे दी जाये। विधानमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है सिद्धान्तका परिवर्तन। व्याख्यामें परिवर्तित सिद्धान्त देशके वर्तमान मानसको ठीक-ठीक प्रतिबिम्बित करता है।

मैं यह जानता हूँ कि अनेक महत्त्वपूर्ण समाचारपत्रोंमें प्रस्तावित परिवर्तन की विरोधी आलोचना की गई है। किन्तु देशमें एक असाधारण परिस्थिति यह उत्पन्न हो गई है कि आजतक ज्यादातर समाचारपत्र जो जनतापर प्रभाव रखते थे और जनताकी राय समझते थे; आज उनकी अपेक्षा जनताकी राय ही बहुत अधिक प्रगतिशील हो गई है। वास्तवमें आज मत-निर्माण केवल शिक्षित-वर्गतक ही सीमित नहीं बचा है, बल्कि जनताने केवल मत बनानेकी ही नहीं, उसके मुताबिक आचरण करा लेने की जिम्मेदारी भी अपने ऊपर ले ली है। यदि हम उसकी रायको छोटा करके देखें अथवा उसकी अवज्ञा करें अथवा इसे किसी क्षणिक उथल-पुथल से उत्पन्न मानें तो यह एक त्रुटि होगी, इसी तरह अगर हम यह भी मानें कि जनतामें यह जागृति अली-भाइयों या मेरी गतिविधियोंके कारण उत्पन्न हुई है, तो यह भी उतनी ही बड़ी गलती होगी। जनता आज हमारी बात सुन रही है, इसका कारण ही यह है कि हम उसीकी भावनाओंको व्यक्त कर रहे हैं। जनता उतनी मूर्ख या नासमझ कदापि नहीं है जितनी हम कभी-कभी उसे मान लेते हैं। जिस बातको हम बुद्धिसे नहीं समझ पाते, वह उसे अन्तःप्रेरणासे समझ लेती है। अलबत्ता जनता जो-कुछ चाहती है, उसे किस तरह व्यक्त करे, सो वह नहीं जानती और वह जो-कुछ चाहती है, उसे प्राप्त करनेका तरीका तो और भी कम परिमाणमें जानती है। नेतृत्वका यही उपयोग है। यदि नेतृत्व खराब हो, जल्दबाजी से भरा हुआ हो या इससे भी बुरी बात, स्वार्थ से भरा हुआ हो, तो उसका परिणाम बहुत बुरा निकल सकता है।

सिद्धान्तमें प्रस्तावित परिवर्तनका पहला भाग देशकी वर्तमान इच्छाको व्यक्त करता है और दूसरा यह व्यक्त करता है कि उक्त इच्छा पूरी की जा सकती है। मेरी नम्र रायमें प्रस्तावित परिवर्तित सिद्धान्त कांग्रेसके मूल सिद्धान्तका विस्तार-भर है। और जबतक अंग्रेजोंसे सम्बन्ध तोड़नका प्रयत्न नहीं किया जाता, तबतक तो वह कांग्रेसके सिद्धान्तकी परिभाषा करनेवाली आजकी धाराके अन्तर्गत ही है। मूलका विस्तार वह इसी अर्थ में है कि उसमें अंग्रेजोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी सम्भावनाकी गुंजाइश भी है। मेरी तुच्छ सम्मतिमें यदि भारत अप्रतिहत रूपसे प्रगति करना चाहता है, तो उसे अंग्रेज जनताके सामने यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि हम यदि अंग्रेजोंसे सम्बन्ध बनाये रखकर अपना पूरा विकास कर सकते हैं, तो हम सम्बन्ध बनाये रखना चाहते हैं, किन्तु यदि परिपूर्ण राष्ट्रीय विकासके लिए आवश्यक हो, तो हम उसके