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कांग्रेसका संविधान

बिना काम चलानका निश्चय कर चुके है और हमारे लिए उससे पूरा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेना भी सम्भव है। ऐसा मानना कि ब्रिटिश सम्बन्धोंके बिना हम अपने उद्देश्यकी ओर बढ़ ही नहीं सकते, मेरी समझमें राष्ट्रीय सम्मानके लिए अपमानजनक ही नहीं है, इससे राष्ट्रीय प्रगतिमें बड़ी बाधा भी उत्पन्न होती है। यह एक अन्धविश्वास है; और इसी अन्धविश्वासके कारण हमारे कुछ अच्छेसे-अच्छे लोग पंजाबके अत्याचार और खिलाफत के अपमानको सहन कर लेते हैं। उक्त सम्बन्धके प्रति हमारी यह अन्ध-श्रद्धा हमारे मनमें लाचारीकी भावना जगाये रखती है। सिद्धान्तका प्रस्तावित परिवर्तन हमें इस लाचार परिस्थितिसे मुक्त करने में समर्थ बनाता है। मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि स्वतन्त्रताका प्रयत्न करना बिलकुल वैधानिक है। किन्तु केवल इस विचारसे परिवर्तित सिद्धान्तके मसविदेमें से अत्यन्त पारिभाषिक विशेषण "वैधानिक" को हटा दिया गया है कि आगे चलकर पूर्ण स्वराज्यके वैधानिक स्वरूपको लेकर बहस न उठ खड़ी हो। इतना-भर निश्चयपूर्वक कह देनेसे काम चल जाना चाहिए कि हम अपना उद्देश्य प्राप्त करनेके लिए शान्तिपूर्ण, सम्मानपूर्ण और उचित पद्धतिका अवलम्बन करेंगे। मुझे विश्वास है कि मेरे सहयोगियोंने प्रस्तावित सिद्धान्तको स्वीकार करते समय यही दृष्टिकोण अपने सामने रखा है। कुछ भी हो, जो परिवर्तन किया गया है उसके विषय में मेरा तो निस्सन्देह यही विचार रहा है। मेरे मनमें ऐसा कोई भी साधन प्रयुक्त करनेकी अभिलाषा नहीं है, जो कानून और व्यवस्थाको भंग करता हो। मैं यह जानता हूँ कि शान्ति और व्यवस्थाका नाम लेते हुए मैं एक अनावश्यक बात कर रहा हूँ, क्योंकि हमारे प्रमुख नेताओं में से कुछ आज भी यही मानते हैं कि मेरी वर्तमान पद्धति कानून और व्यवस्थाको भंग करनेवाली है। फिर भी इतना तो कदाचित् वे भी मानेंगे कि वैधानिक शब्दको बनाये रखनेसे ही देशको उन पद्धतियोंसे बरी नहीं रखा जा सकता, जिन्हें में काममें ले रहा हूँ। निस्सन्देह इसपर बड़ी बारीक कानूनी बहस हो सकती है, किन्तु जब देशको काम करना है, तो ऐसी बहसों में पड़ने से कोई लाभ नहीं। दूसरा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन प्रतिनिधियोंकी संख्याको सीमित करनेसे सम्बन्धित है। मेरी समझ में इस तरहके सीमितीकरणके स्पष्ट लाभ हैं। बहुत जल्दी ही वह समय आ जायेगा कि यदि हमने ऐसी कोई सीमा नहीं बनाई, तो कांग्रेस वशके बाहर बड़ी हो जायेगी। अमर्यादित संख्या में दर्शकोंको आने देना भी तो एक कठिन बात है। फिर यदि प्रतिनिधि ही अमर्यादित संख्या में बनने दिये जायें, तो राष्ट्रीय कार्य करना कैसे सम्भव होगा।

अन्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन है अखिल भारतीय कांग्रेस समितिके सदस्योंके चुनाव से सम्बन्धित परिवर्तन। इसमें कांग्रेसकी हदतक देशको भाषाके आधारपर पुनर्विभाजित करना और उक्त समितिको लगभग विषय समिति बना देनेका सुझाव है। इन परिवर्तनोंपर टीका-टिप्पणी करना आवश्यक नहीं है; किन्तु मैं यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि यदि सदस्योंकी संख्याको मर्यादित करनेका सिद्धान्त कांग्रेस स्वीकार कर ले, तो सानु- पातिक प्रतिनिधित्वका सिद्धान्त ले आना भी अच्छा रहेगा। इससे उन सभी दलोंको सुविधा होगी जो कांग्रेस में अपने प्रतिनिधि भेजना चाहते हैं।