देखता हूँ कि 'सर्वेट आफ इंडिया' ने ब्रिटिश समिति और 'इंडिया' नामक समाचारपत्रसे सम्बन्धित 'यंग इंडिया' में हाल ही में प्रकाशित मेरे लेख[१]और ब्रिटिश समितिके बने रहनेपर मेरी मुग्ध स्वीकृतिको परस्पर विरोधी माना है——कमसे-कम प्रस्तावित विधानके प्रकाशनकी हदतक। किन्तु यह सुविदित है कि पिछले कई वर्षोंसे उक्त संस्थाके विषय में मेरी यही राय है। यदि मैं अपने सहयोगियोंको उक्त संस्थाकी समाप्तिकी बात सुझाऊँ, तो वह निरर्थक होगी। समिति उपयोगी है अथवा नहीं, इसपर कुछ कहना हमारा काम नहीं था। हमारा काम तो केवल एक नया विधान तैयार करनेका था। इनके अतिरिक्त मैं यह भी जानता था कि मेरे साथी ब्रिटिश समितिके अस्तित्व के खिलाफ नहीं हैं। नये संविधानको बनाते हुए मैं यह बात देख सका हूँ कि इसमें सिद्धान्तके प्रश्न निहित नहीं हैं और अपने विरोधियोंकी रायोंसे जल्दी से जल्दी सहमत होनेकी मेरी इच्छा भी थी। तथापि समितिका आज जो स्वरूप है, मैं उसे खत्म करनेपर जोर दूँगा और 'इंडिया' नामक इसके मुख-पत्रको भी बन्द करवाना चाहूँगा।
यंग इंडिया, ३-११-१९२०
२४०. निर्दोष भूल
महादेव देसाईने 'नवजीवन' के पिछले अंकमें लखनऊ में हुई विराट् सभाकी जो रिपोर्ट प्रकाशित की थी वह कुल मिलाकर बहुत सुन्दर बन पड़ी है। उसीमें उन्होंने मौलाना अब्दुल बारी साहबके भाषणका विवरण भी दिया है। इस भाषणको सबने बहुत ध्यान से सुना था। किन्तु श्री डगलस नामक एक ईसाई [सज्जन] ने तो उस भाषणका यहाँतक अनर्थ किया कि जिस असहयोगको स्वीकार करके उन्होंने वकालत छोड़ दी थी उसे पुनः आरम्भ कर दिया है और असहयोगका काम छोड़ दिया है। पर सभी लोगोंपर इस भाषणका एक जैसा असर नहीं हुआ। मुझे मालूम है कि श्री महादेव देसाई मौलाना साहबकी फारसी और अरबी शब्दोंसे भरी उर्दूको पूरी तरह नहीं समझ सके हैं। उन्होंने उसका जो विवरण दिया है, मेरे मतानुसार उसमें भूलें हुई हैं। मौलाना साहबके भाषणका मेरे ऊपर कुछ दूसरा ही असर हुआ है। इस भाषणको मैं जैसा मुझे याद आता है, ठीक वैसा यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। ये शब्द मौलाना साहबके नहीं कहे जा सकते, क्योंकि मैंने उनके इस भाषणके कोई नोट नहीं लिये थे; लेकिन मेरी यह दृढ़ धारणा है कि ये विचार उनके ही हैं।
गांधीजी द्वारा खेरी की घटनापर[२]विवेचन करनेके बाद मैं उस विषयपर कुछ बोलना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। मुझे राजनैतिक विषयोंकी जानकारी