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निर्दोष भूल
स्तुत किया है। यह प्रसंग इतना अधिक गम्भीर था और इसपर इतने नपेतुले शब्दों में विवेचन किया गया था कि जबतक भाषणको उसके मूल रूपमें प्रस्तुत न किया जाये तबतक इसमें कोई-न-कोई भूल रह ही जायेगी।

श्री महादेवने भी पूरी रिपोर्ट तो ली नहीं थी, इसलिए मुझे उसमें जो अधूरापन दिखाई दिया उसे मैंने पाठकोंके समक्ष रखा है। [मौलाना साहबके भाषणपर लिखी गई] मेरी रिपोर्टके अधूरेपनको तो जिन लोगोंने इसे सुना वही बता सकते हैं और सब लोगोंके अधूरेपनको तो मौलाना साहब ही देख सकते हैं और चाहें तो बता भी सकते हैं। लेकिन मुझे तो इससे यही सीखना है कि एक पत्रकारके रूपमें मेरी क्या जवाबदेही है? प्रत्येक सम्पादक अपने पत्रकी हर पंक्तिपर अंकुश नहीं रख सकता। यदि मैंने भी महादेवकी रिपोर्टको पहले ही देख लिया होता तो में उपर्युक्त परिवर्तन अवश्य करता। लेकिन में श्री महादेवके दोष निकालनेके लिए भी तैयार नहीं हूँ। रिपोर्टर जैसा भाषण सुनता है उसे अपनी समझ और शुद्ध बुद्धिसे प्रस्तुत करता है——रिपोर्टरके इस कर्तव्यको श्री महादेवने भली-भाँति निभाया है। पाठकोंको सदा सम्पादक तथा रिपोर्टर-वर्गकी मुश्किलोंको ध्यान में रखते हुए समाचारपत्रोंमें उचित सुधारकी गुंजाइश रखकर ही उन्हें पढ़ना चाहिए। यदि ऐसा नहीं करते तो वे समाचारपत्रोंके संचालकोंके प्रति भारी अन्याय करते हैं और उनसे जितना लाभ उठाना सम्भव है उतना लाभ कदापि नहीं उठा सकते।

अब रहे श्री डगलस, जिनका में ऊपर उल्लेख कर आया हूँ। उन्होंने आन्दोलन से हाथ खींच लिया है। इन भाईने ऐसा करके केवल उतावली दिखाई है। मौलाना साहबने ईसाइयोंके बारेमें 'काफिर' शब्दका इस्तेमाल किया, इससे उन्हें दुःख हुआ है। मैं उनके इस दुःखको समझ सकता हूँ। अगर 'काफिर' शब्दका प्रयोग न किया जाता तो अधिक अच्छा होता। लेकिन मौलाना साहबने इस शब्दका प्रयोग तो शुद्ध हृदयसे किया था और इस समय जिन अंग्रेजोंको वे शत्रु मानते हैं उन्हींके सम्बन्धमें यह प्रयोग किया गया था। तथापि श्री डगलसने जो कदम उठाया है उसे उठाने से पहले उन्हें मौलाना साहब से उनके कथनका अभिप्राय जान लेना चाहिए था। वैसा न करके उन्होंने अत्यन्त उतावलीमें आन्दोलनको त्याग दिया है; इससे उनके इस कदमको में सन्देहकी नजरसे देखता हूँ। मौलाना साहबके वचन तीखे थे लेकिन मेरा ऐसा विश्वास है कि वे किसी निर्दोष व्यक्तिके हृदयको आघात पहुँचानेवाले नहीं थे। साथ ही मुझे यह भी विश्वास है कि उनके भाषण में हत्याको बढ़ावा देनेका भी कोई भाव न था। उन्होंने तो अपने भाषण में सिर्फ शास्त्रके अर्थको ही स्पष्ट किया है और अपने ऊपर किये गये प्रहारोंका उत्तर दिया है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ३-११-१९२०