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भाषण : वाईमें

तो उन ब्राह्मणोंकी बात कर रहा हूँ जिनके विरुद्ध अब्राह्मण हमले कर रहे हैं, और कहता हूँ कि यदि आप ब्राह्मणोंसे द्वेष करोगे, तो अपने ही पैरोंपर कुल्हाड़ी मारोगे।

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मैंने तीस वर्ष सहयोग किया है, परन्तु आज असहयोग करनेको प्रवृत्त हुआ हूँ, इसका कारण क्या है? कारण यही है कि हमारे शास्त्र कहते हैं कि जबतक मनुष्यमें कुछ भी अच्छाई रहे तबतक उससे सहयोग किया जाये, परन्तु जब इन्सान अपनी इन्सानियत छोड़ देनेका हठ पकड़ लें, तब उसे त्याग देना मनुष्यमात्रका कर्त्तव्य हो जाता है। तुलसीदास, तुकाराम, रामदास सभी यह सिखा गये हैं कि देव और दानव, राम और रावणमें सहयोग नहीं रह सकता। राम और लक्ष्मण तो बालक थे, फिर भी दस मस्तकवाले रावणसे जूझे। हमारी सरकारने मुसलमानोंके दिलोंमें पैना खंजर भोंका है और इस्लामका अपमान किया है। पंजाब में स्त्री-पुरुषों और विद्याथियोंपर अत्याचार हुए हैं। उनकी पुनरावृत्तिको रोकने का एकमात्र मार्ग सरकारके विरुद्ध असहयोग करना है।

'गीता' में जिस अभेद-बुद्धिकी बात कही गई है, उसका क्या अर्थ है? जबतक आपको ऐसा महसूस नहीं होता कि पंजाबके पुरुषोंपर जो मार पड़ी, उन्हें जो पेटके बल चलाया गया और उनसे नाक रगड़वाई गई, विद्यार्थियोंपर जो अत्याचार हुए, वे सब आप पर ही हुए हैं, तबतक आपको अभेद-बुद्धि प्राप्त नहीं हुई। श्री समर्थ रामदास स्वामी के लिए कहा जाता है कि जब उन्होंने किसीके कोड़ा लगते देखा तब उन्हें इतना दुःख हुआ था कि उनकी अपनी पीठपर कोड़के निशान दिखाई दिये। रामदास स्वामीने यह अभेद-दृष्टि सिद्ध कर ली थी इसी कारण वे हमारे पूज्य बन गये हैं। यदि हमें ऐसा न लगे कि पंजाब में और मुसलमानोंके साथ जो बेइन्साफी हुई है, वह हमारे साथ ही हुई है, तो हम इस्लामकी रक्षा कैसे कर सकेंगे? हिन्दू धर्मकी रक्षा कैसे कर सकेंगे?

भूल तो सभी करते हैं, परन्तु भूल हुई जानकर सभी माफी मांगते हैं, तोबा करते हैं। परन्तु इस सल्तनतने तो घमण्डमें भूल करके तोबा करनेसे इनकार कर दिया और हम सबसे अत्याचारोंको भूल जाने को कहा। यह राक्षसी वार है। तुलसीदासजी कह गये हैं कि असंतोंका त्याग किया जाये। में उसी उपदेशके आधारपर इस हुकूमतका त्याग करने की सलाह दे रहा हूँ इस हुकूमत में रहकर हम उसकी कृपा या सहायता स्वीकार करना बन्द कर दें, तो काफी है। सीताजी रावणके राज्यमें रावणके यहाँसे आनेवाली मिठाइयाँ स्वीकार नहीं कर सकती थीं, राक्षसियोंका दासत्व मंजूर नहीं कर सकती थीं, इसलिए उन्होंने भारी तपस्या करके अपने सतीत्वका पालन किया। हमें अपने शीलकी रक्षा करनी हो, तो असहयोगके सिवा और कोई उपाय नहीं। विद्यार्थी पाठशालाएँ छोड़ने से इसी कारण झिझकते हैं कि आज पाठशाला छोड़ देंगे, तो कल हमारी शिक्षाका क्या होगा? में आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जिस श्रद्धासे जानकीजी रावणका आहार तजती थीं—रामचन्द्रजीकी ओरसे उन्हें आहार