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२४९. कुछ दिक्कतें

स्वराज्यका मार्ग जितना सीधा है उतना ही विकट है। इसमें टीले और खाइयाँ हैं; हमें इन टीलोंको तोड़ना होगा, खाइयोंको पाटना होगा। यदि हम ऐसा न कर सके तो टीले हमारी राह रोकेंगे। अगर खाइयोंको न पाट सके तो भी हमारी वही गति होगी।

अहमदाबादमें जो घटनाएँ घटी हैं[१]उनमें से कितनी ही दुःखद हैं। काली माताकी बलि चढ़ाये जानेवाले एक बकरेको बचाकर बहुतोंने सुख और सन्तोषकी साँस ली। यदि इस बकरेको विधिपूर्वक बचाया जाता तो मुझे बहुत प्रसन्नता होती, लेकिन बकरेको बचाने जाकर मनुष्योंको दुःखी किया गया, उनपर जुल्म ढाये गये और इस तरह बकरेकी जान बचाई गई। यह हिन्दू धर्म नहीं है। इस धर्ममें अहिंसाके जिस स्वरूपकी शिक्षा दी गई है उसमें एक बकरेको बचाकर व्यक्तिकी हत्या करना अथवा उसे डराना-धमकाना नहीं आता। बहुतेरे सिंह, बाघ, भेड़िये आदि असंख्य बकरोंको खा जाते हैं, उन्हें हम नहीं रोकते। सर्प-दंशसे बहुत-से जानवर और व्यक्ति मारे जाते हैं, उन्हें हिन्दू मारते नहीं अपितु उनकी हत्या करना पाप समझते हैं। तो फिर हम बकरेको बचानेमें जोर-जबरदस्ती कैसे कर सकते हैं?

इतना ही नहीं, हिन्दू-हिन्दूके बीचके इस धर्म-कार्यमें हिन्दुओंने एक मुसलमान मौलवीकी और उसके जरिये मजदूरोंकी मदद ली। यह एक भारी भूल हुई, ऐसी मेरी मान्यता है। ऐसे कार्योंमें यदि हम मुसलमानकी मदद लेंगे तो यह एक गुलामीमें से निकल दूसरी गुलामी में पड़नेके समान होगा। इस मौलवीको बीचमें आना ही नहीं चाहिए था। उसे समझना चाहिए था कि हिन्दुओंके धर्म-सम्बन्धी झगड़ोंमें हस्तक्षेप करना उसका काम नहीं है। सुननेमें आया है कि इस मौलवीकी बातें भी कौमको नुकसान पहुँचानेवाली थीं। इस अनुभवसे दो बातें प्रकट होती हैं। एक तो यह कि हमें किसीसे भी जबरदस्ती कोई काम नहीं करवाना चाहिए और दूसरी यह कि जिस व्यक्तिकी नियुक्ति खिलाफत समिति अथवा स्वराज्य-सभा——जिनपर कि हमें पूर्ण विश्वास है——की ओरसे न की गई हो, हमें उसके भाषणको कदापि नहीं सुनना चाहिए, उसकी सभामें नहीं जाना चाहिए। मेरी समझमें हम जिसे अपना विरोधी मानते हों, उसकी सभामें उपस्थित होना, उसकी दलीलें सुननेके विचारसे जाना, एक अलग बात है। जबतक हमारे विचार निश्चित नहीं हो जाते तबतक यह सोचकर कि 'कोई एक मौलवी आये हैं; सुनें तो वे क्या कहते हैं', उत्सुकतावश हर किसीका भाषण सुनने नहीं जाना चाहिए।

सच बात तो यह है कि आजकल खिलाफत अथवा स्वराज्य-सभाके नामसे कुछ पाखण्डी भी भाषण देकर अपना पोषण कर रहे हैं। हमें उनके व्याख्यान सुनने कतई नहीं जाना चाहिए।

  1. देखिए "भाषण : मेहमदाबादमें", १-११-१९२० ।