चाहता हूँ कि मैंने ऐसा एक भी काम नहीं किया, जिसके साथ आजके कामकी तुलना हो सके। इस काममें मुझे बड़ी जोखिम लगती है, वह इसलिए नहीं कि उससे जनताका नुकसान होगा। पर मुझे जिस बातका दुःख हुआ करता है या मैं अपने मनमें जिसका मुकाबला कर रहा हूँ, वह यहीं है कि मैं जो काम करने बैठा हूँ उसके लायक मैं लियाकत नहीं रखता। यह मैं शिष्टाचारकी दृष्टिसे नहीं कह रहा हूँ, बल्कि जो कुछ मेरी आत्मा कह रही है, उसीका चित्र आपके सामने रख रहा हूँ। मुझे अगर पता होता कि अभी जो काम करना है, वह शिक्षाके सच्चे अर्थके आधारपर करना है, तो मुझे यह प्रस्तावना न करनी पड़ती। इस महाविद्यालयकी स्थापना करनेका उद्देश्य सिर्फ विद्या देना नहीं बल्कि आजीविकाके साधन जुटा देना भी है; और इसलिए जब मैं इस विद्यालयकी तुलना गुजरात कालेज आदिसे करता हूँ तो मुझे चक्कर आ जाते हैं।
इसमें भी अतिशयोक्ति नहीं कि कहाँ गुजरात कालेज और ऐसे ही दूसरे कालेज और कहाँ हमारा यह छोटासा महाविद्यालय! मेरे खयालसे तो यह बड़ा ही है। पर मुझे डर है कि आपकी नजरमें हिन्दुस्तानके कालेजोंके मुकाबले में यह महाविद्यालय अणु-विद्यालय लगता होगा। इस विद्यालयका विचार करते वक्त आपके मन में ईंटचुनेकी तुलना होती होगी। ईंट-चूना तो मैं गुजरात कालेजमें ज्यादा देखता हूँ। रेलमें आ रहा था तब मैं यही विचार करता आ रहा था कि आपके सामने आज मैं क्या विचार रखूँ, जिससे यह ईंट-चूनकी तुलना आपके मनसे निकाल सकूँ। यह बात मुझे चुभ रही है कि वह विचार मुझे अभीतक नहीं सूझा। ऐसा कठिन अवसर मैंने अपने लिए पहले कभी पैदा नहीं किया। इस वक्त अनायास यह मेरे माथे आ पड़ा है। मेरे दिलके अन्दर जो चीज सिद्ध है, उसे मैं आपके सामने उसी तरह सिद्ध नहीं कर सकता। यह मैं किस तरह बताऊँ कि जिसे आप खामी समझते हैं, वह कोई खामी नहीं है? इन खामियोंको सरल भावसे बताकर भाई किशोरलाल (महामात्र) ने मेरा काम आसान कर दिया है। आप यह मानें कि इन खामियोंके बावजूद यह काम बड़ा है। मेरे दिलमें इसके लिए जो श्रद्धा है, वैसी ही श्रद्धा परमात्मा आपके दिलमें पैदा करे। मैं यह श्रद्धा आपमें पैदा नहीं कर सकता, मेरी इतनी तपस्या नहीं। मुझे अपनी असमर्थता स्वीकार करनी चाहिए। मैंने शिक्षाके क्षेत्रमें ऐसा काम नहीं किया जो मैं आपको बता सकूँ कि यह काम बड़ेसे-बड़ा है। हिन्दुस्तानकी आजकी परिस्थितिमें हम जो काम कर रहे हैं वही शोभा देता है। मकानोंकी क्या तुलना?
आज तो एक इंच जमीन भी हमारी नहीं है। सब-कुछ सरकारका है। यह जमीन, ये पेड़ सब-कुछ सरकारी हैं। शरीर भी सरकारका है और आज मुझे इसमें भी शंका हो रही है कि हमारी आत्मा भी हमारी अपनी है या नहीं। ऐसी दयाजनक हालतमें हम महाविद्यालयके लिए अच्छेसे-अच्छे मकान कैसे ढूँढ़ें? विद्वानोंको ढूँढ़ते रहें तो कैसे काम चले? कोई अज्ञानीसे-अज्ञानी और अनाड़ी आदमी भी आकर कहे और समझा सके कि हमारी आत्माएँ शुष्क हो गई हैं और यह देश निस्तेज और ज्ञानहीन हो गया है तो उस मनुष्यको मैं आचार्यकी पदवी दूँगा। मुझे यकीन नहीं