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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/५१४

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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि आप किसी गड़रियेको आचार्यका ओहदा देने को तैयार होंगे। इसलिए हमें भाई गिडवानीको[]ढूँढ़ना पड़ा है। मैं इनके पदपर मोहित नहीं। आप इन्हें इनके पदके सिवा और तरहसे शायद न पहचानते होंगे। पर इस विद्यालयकी जाँचके लिए दूसरा नाप रखना। मैं चाहता हूँ कि इसकी परखके लिए आप दूसरी कसौटी ढूँढें। मामूली कसौटीपर कसोगे तो यह पीतल-सा दिखाई देगा; पर चरित्र की कसौटीपर कसोगे तो यह आपको पीतल नहीं, खरा सोना दिखाई देगा।

यहाँ इस विद्याके कामके लिए जो संगम हुआ है, वह तीर्थकी तरह है। यहाँ चरित्रवान् लोग इकट्ठे हुए हैं। अच्छेसे-अच्छे सिन्धी, महाराष्ट्रीय और गुजराती एकत्रित हो सके हैं। ऐसा संगम हमें कहाँसे मिल सकता है?

यहाँ जो भाई-बहन आये हैं, पहले उनसे मैं प्रार्थना करूँगा। इस महाविद्यालयकी स्थापनाके आप गवाह हैं। आपमें से किसीको भी यह स्थापना करना तमाशा-सा लगता हो तो ऐसे लोगोंके अन्तःकरणको उद्देश्य करके मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि आप इस स्थापनामें मत बैठिये। आप यहाँ अपना आशीर्वाद देने के लिए ही बैठें। आपका आशीर्वाद मिलने से महाविद्यालय महान् बन जायेगा। मगर वह मुँहसे ही नहीं, दिलसे दिया जाना चाहिए। दिलसे आशीर्वाद तो आप अपने लड़के-लड़कियोंको महाविद्यालय भेजकर ही दे सकते हैं। हिन्दुस्तानमें रुपया देनेकी शक्ति तो बहुत है। रुपयेकी कमीसे कोई तरक्की नहीं रुकती। काम तो रुकता है आदमियोंकी कमीसे, अध्यापकों या मुखियाके अभावमें और मुखिया हो तो उसके शिष्यों यानी सिपाहियों- के अभावमें। मैं मानता हूँ कि जहाँ नेता लायक होते हैं, वहाँ सिपाही मिल ही जाते हैं। बढ़ईके औजार कितने ही भोंथरे क्यों न हों तो भी वह कभी उनके साथ झगड़ा नहीं करता। वह भोंथरेसे-भोंथरे औजारोंसे भी अपना काम निकाल लेगा। इसी तरह मुखिया भी सच्चा कारीगर होगा तो जैसी चीज मिलेगी उसीसे देशकी मिट्टीमें से सोना पैदा कर लेगा। आचार्य से मेरी यही प्रार्थना है।

यहाँ आचार्य और अध्यापकोंकी काम करनेमें एक ही भावना है : विद्याका नहीं बल्कि चरित्रका चमत्कार दिखाकर तुम आजादी दिलानेवाले हो। सरकारकी तेज तलवारका मुकाबला तलवारसे करके नहीं बल्कि सरकारकी अशान्तिकर राक्षसी प्रवृत्तिका अपनी शान्तिमयी दैवी प्रवृत्तिसे——भले ही वह अपूर्ण हो तो भी——मुकाबला करके। इस वक्त हमें आजादीका बीज बोकर और उसे सींचकर उससे स्वराज्यका सुन्दर वृक्ष पैदा करना है। वह चरित्रसे, शुद्ध दैवी बलसे ही बड़ा होगा। जबतक आचार्य और अध्यापक यही एक दृष्टि रखकर काम करते रहेंगे तबतक हमारी जरा भी बदनामी न होगी। आचार्य और अध्यापकोंके बारेमें मेरी जो श्रद्धा है, ईश्वर उसे सच्ची साबित करे। यह अटल श्रद्धा मुझमें न होती तो मैं अपढ़ आदमी कुलपतिके इस पवित्र स्थानको मंजूर ही न करता। मैं इसी काममें जीने और मरनेके लिए तैयार हूँ। जैसे इस काम में मरनेको ही मैं जीना समझता हूँ, वैसा ही आप भी

  1. आचार्य ए॰ टी॰ गिडवानी; रामजस कालेज, दिल्लीके प्रिंसीपल। अन्य अध्यापकोंके नामोंके लिए देखिए परिशिष्ट २ ।