समझते हैं, यह जानकर ही मैं आपके साथ रहता हूँ और इसीलिए इस बड़े पदको मैंने मंजूर किया है।
अगर आचार्य और अध्यापक अपना धर्म-पालन करें तो विद्यार्थियोंसे फिर मुझे क्या कहना है? विद्यार्थियोंपर आक्षेप लगानेका नीच काम मैं नहीं करूँगा। विद्यार्थी तो परिस्थितिका आईना हैं। उनमें दम्भ नहीं, द्वेष नहीं, ढोंग नहीं। वे जैसे हैं वैसा ही अपनेको दिखाते हैं। अगर उनमें पुरुषार्थ नहीं, सत्य नहीं, ब्रह्मचर्य नहीं, अस्तेय नहीं, अपरिग्रह और अहिंसा नहीं तो यह उनका दोष नहीं; दोष माँ-बापका है, अध्यापकोंका है, आचार्यका है, राजाका है। पर इसमें राजाको भी क्या दोष दिया जाये? कल ही मैंने बम्बईमें विद्यार्थियोंसे कहा था कि जैसे 'यथा राजा तथा प्रजा' सच है वैसे ही 'यथा प्रजा तथा राजा' भी सच है। बल्कि यही सच कहा जायेगा। पहला दोष जनताका है। जनताके दोष विद्यार्थियोंमें आये हैं और इसलिए वे विद्यार्थियोंमें साफ तौरपर दिखाई देते हैं। तो हमें——माँ-बाप, आचार्य और अध्यापकोंको—— वे खराबियाँ दूर करनेके लिए जो कुछ करना जरूरी हो, वह करना चाहिए।
हिन्दुस्तानका हरएक घर विद्यापीठ है——महाविद्यालय है; माँ-बाप आचार्य हैं। माँ-बापने आचार्यका यह काम छोड़कर अपना धर्म छोड़ दिया है। बाहरकी सभ्यताको हम पहचान न सके, उसके गुणों और दोषोंका अन्दाज नहीं लगा सके। बाहरकी सभ्यताको हमने किरायेपर ले लिया, मगर हम किराया कुछ नहीं देते; इसलिए हमने उसे चुरा लिया है। ऐसी चोरीकी सभ्यता से हिन्दुस्तान कैसे ऊँचा उठ सकता है?
हम इस विद्यालयकी स्थापना विद्याकी दृष्टिसे नहीं बल्कि राष्ट्रीय दृष्टि से विद्यार्थियोंको बलवान और चरित्रवान् बनानेकी खातिर करते हैं। मैं चारों तरफ कह रहा हूँ कि मुझे जितनी कामयाबी विद्यार्थियोंमें मिलेगी, उसी हदतक हम हिन्दुस्तानके स्वराज्यके लायक हो सकेंगे। स्वराज्य और किसी तरह कायम नहीं हो सकता। ऐसे विद्यालयोंको सफल बनानेके लिए हम अपना चाहे जितना रुपया खर्च करें और चाहे जितना चरित्र बल लगायें, थोड़ा है।
यह बोलने का वक्त नहीं, करनेका वक्त है। मेरे दिलमें जो बात आई, वह मैंने आपसे कह डाली। आपसे जो माँगना था, माँग लिया। अब पढ़नेवाले विद्यार्थियोंसे भी माँगता हूँ। इसमें शक नहीं कि उनके पास साहस है। जो भरती हो चुके हैं, उन्हें मैं विद्यार्थी नहीं समझूँगा। यानी मैं उन्हें जिम्मेदारी से मुक्त नहीं समझूँगा। जिन विद्यार्थियोंने यहाँ नाम लिखाया है वे आधे शिक्षक माने जायेंगे। उन्होंने ही महाविद्यालयकी नींव डाली है। उन्हींपर महाविद्यालयकी इमारत खड़ी हुई है। वे भरती न हुए होते तो महाविद्यालय खड़ा ही नहीं हो सकता था। इसलिए उनकी भी पूरी जिम्मेदारी है। तुम उसमें पूरी तरह साझेदार हो और तुम अपना हिस्सा पूरी तरह न दो तो शिक्षक कितनी ही कोशिश करें, तो भी सफल नहीं होंगे——पूरी तरह सफल हो ही नहीं सकते। जिन विद्यार्थियोंने अपने स्कूल छोड़े हैं, उन्हें जान लेना चाहिए कि वे क्या समझकर यहाँ आये हैं, उन्हें यहाँ क्या मिलेगा। परमात्मा उनमें ऐसी शक्ति भर दे कि यह भयानक लड़ाई कितनी ही लम्बी क्यों न चले, तो भी इस