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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बीच वे अपना काम करते रहें। ऐसा हुआ तो मुझे भरोसा है कि मुट्ठीभर विद्यार्थी होंगे, तो भी यह महाविद्यालय शोभा पायेगा और सारे हिन्दुस्तानमें आदर्श विद्यालय बनेगा।

इसका कारण न गुजरातका धन है, न गुजरातकी विद्या, पर इसका कारण यह है कि असहयोगकी पैदाइश गुजरातमें हुई है। असहयोगकी जड़ गुजरातमें रोपी गई है, उसकी सिंचाई गुजरातमें हुई है, और उसके लिए तपस्या भी गुजरातमें हुई है। इससे यह न मान लेता कि यह आदमी झूठा घमण्ड करता है। यह न मानना कि यह सारी तपस्या मैंने ही की है, या यह जड़ मैंने ही जमाई है। मैंने तो सिर्फ मंत्र दिया है। एक बनियेका बेटा अगर ऐसा कर सकता हो तो मैंने यह ऋषिका काम किया है।

इससे ज्यादा मैंने कुछ नहीं किया। उसकी जड़ तो मेरे साथियोंने जमाई है। उनकी श्रद्धा तो मुझसे भी ज्यादा थी, तभी तो काम हुआ। मेरा दावा है कि मुझे अनुभव-ज्ञान है। देवता भी आकर समझायें तो भी मेरी श्रद्धा हिल नहीं सकती। जैसे इन आँखोंसे मुझे सामनेके पेड़ साफ दिखाई देते हैं, वैसे ही मुझे साफ दिख रहा है कि हिन्दुस्तानकी उन्नति शान्तिपूर्ण असहयोग से ही होगी। पर मेरे साथियोंके बारेमें ऐसा नहीं कहा जा सकता। उन्होंने तर्कसे, दलीलसे और श्रद्धासे माना है कि इस शान्त असहयोगसे ही तरक्की हो सकेगी।

हिन्दुस्तानमें या दुनियामें कहीं भी कोई अपने ही अनुभवसे काम नहीं करता। कुछको अनुभव होता है, जब कि और लोग वही काम श्रद्धासे करते हैं।

मेरे साथियोंने बुनियाद डाली है। उनमें ज्यादा गुजराती हैं, महाराष्ट्री भी हैं। पर ये महाराष्ट्री गुजरातमें आकर आधे, पौने या सवाये गुजराती ही बन गये हैं। उनके हाथों यह शस्त्र उज्ज्वल बना है। इसका पूरा चमत्कार अभी हमने नहीं देखा। जिस कामके लिए लड़कियोंने अपनी चूड़ियाँ उतारकर मुझे दी हैं, उसका और अधिक चमत्कार तो आप छह महीनेके अन्दर देख सकेंगे। पर इस सबकी जड़——उसकी प्रत्यक्ष मूर्ति——यह महाविद्यालय है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं और इसके लिए हमें अभिमान है। इस मूर्तिके अलग-अलग अंग हैं। उनमें से कुलपति मैं खुद हूँ; अध्यापक, आचार्य और विद्यार्थी उसके दूसरे अंग हैं। मैं खुद तो बूढ़ा हूँ, पका पान हूँ; दूसरे कामों में लगा हुआ हूँ। मेरे जैसा पका पान झड़ जाये, तो पेड़की कोई हानि न होगी। आचार्य और अध्यापक भी पत्ते हैं, अलबत्ता अभी कोमल पत्ते हैं। थोड़े समयमें वे भी पककर शायद गिर जायेंगे। पर विद्यार्थी इस सुन्दर पेड़की डालियाँ हैं और इन्हीं डालियोंमें से आचार्य और अध्यापकरूपी पत्तियाँ फूटेंगी।

विद्यार्थियोंसे मेरी प्रार्थना है कि तुम्हारी जितनी श्रद्धा मुझपर है, उतनी ही तुम अपने अध्यापकोंपर रखना। पर तुम्हें अपने आचार्य या अध्यापक कमजोर जान पड़ें तो उस वक्त तुम प्रह्लादकी जैसी आगसे इन आचार्यो और अध्यापकोंको भस्म कर डालना और अपने कामको आगे बढ़ाना। यही मेरी ईश्वरसे प्रार्थना है और विद्यार्थियोंको मेरा यही आशीर्वाद है।