आचार्य महाराजने तुम्हें बताया कि कुछ सहयोग तो अनिवार्य है, जब कि कुछ ऐसा है, जिससे हम तुरन्त हाथ खींच सकते हैं। कुछ प्रकारकी वस्तुओंका त्याग करनेके लिए तो सारे देशका त्याग कर देनातक उचित हो सकता है। ऐसा देश-त्याग करनेका समय आयेगा या नहीं, यह मैं नहीं कहता। परन्तु आज वह समय नहीं आया, इसलिए हम इसपर विचार नहीं करते। हम जो तपश्चर्या करें, वह अपने कामके लायक ही करनी चाहिए। हमारे लिए जितनी चित्त-शुद्धि आवश्यक हो, अथवा जितने रोगसे मुक्ति प्राप्त करनी हो, उतनी यदि एक दिनके उपवाससे हो सकती हो तो दो दिनका उपवास करनेवाला बेवकूफ कहलाता है। जितनी तपस्या करना हमने तय किया है, उतनीसे यदि हमारा काम हो जाता हो, तो अधिक नहीं करनी चाहिए। यही जवाब तार, रेल वगैरहके सहयोगके विषयमें है। जिस सहयोगसे हमारे तेजका हनन होता है, जिस सहयोगसे हम सरकारसे इच्छापूर्वक दान लेते हैं, उसका तुरन्त त्याग कर देना चाहिए। सरकारी पाठशालाओंमें जाना ऐसा ही सहयोग है। अब सौभाग्यसे राष्ट्रीय महाविद्यालय बन गया है। हमारे आचार्य और अध्यापकों-जैसे लोग सभी जगह नहीं होते। मैं इनकी तुलना स्थानीय गुजरात कालेजके प्रोफेसरोंके साथ नहीं करना चाहता। वह तो थोड़े समयमें अपने-आप हो जायेगी। अभीतक कालेज न छोड़नेवाले विद्यार्थियोंको राष्ट्रीय पाठशाला न खुलनेसे पहले जितना डर था, उतना अब नहीं रहा। अब वे यह नहीं कह सकते कि नया विद्यालय न खुले तो क्या होगा? उन्हें तो तुरन्त ही इस महा- विद्यालय में भरती हो जाना चाहिए।
मेडिकल कालेजके एक विद्यार्थीने मुझसे पूछा कि हमें असहयोग करना हो तो क्या करें? मेडिकल कालेजके विद्यार्थी दो प्रकारके हैं। उनमें जो फीस देकर पढ़नेवाले हैं, वे तो कल ही हट जायें। परन्तु जो सरकारसे छात्रवृत्ति लेकर पढ़ते हों और जिन्होंने एक खास मियादके भीतर वह रकम लौटा देने या कुछ वर्ष सरकारी नौकरी करनेका इकरार किया हो, उन्हें मैं आज ही कालेज छोड़ देनेकी सलाह नहीं देता। लोगोंसे हम जो रुपया इकट्ठा करते हैं, उसमें से मैं उन्हें रुपया नहीं दे सकता। वे और कहींसे उतनी रकम जुटाकर, सरकारको चुकाकर अपने प्रयत्नसे मुक्ति प्राप्त कर सकते हों तो ऐसा करना उनका कर्त्तव्य है। परन्तु अपनी जेबसे शुल्क आदि चुकानेवाले विद्यार्थियोंका प्रश्न मेरे सामने इस समय खासतौरसे है। हमें चिकित्सा-शास्त्र सीखनेकी दूसरी सुविधा मिले या न मिले, तो भी जिस विद्याको ग्रहण करनेसे हमारी स्वतन्त्रता दूर जाती दिखाई दे, उस विद्याका त्याग करना चाहिए और जबतक ऐसी सुविधा न मिले, तबतक उस विद्याका मोह छोड़कर किसी दूसरे धन्धेमें लग जाना चाहिए। यह पीढ़ी यदि शौर्यहीन बन जायेगी, तो विद्या प्राप्त करके भी वह क्या कर लेगी? विद्याके मोहकी मैं निन्दा नहीं कर रहा हूँ। मैं स्वीकार करता हूँ कि विद्याका मोह होना युवकोंका धर्म है। परन्तु उस मोहकी खातिर अपने देशको, अपने धर्मको होम नहीं देना चाहिए।
जिस विद्यासे धर्मकी रक्षा हो सके, वही विद्या है। इस विद्यापीठमें यही सूत्र स्वीकार किया गया है। वह सूत्र मुझे बहुत अच्छा लगा है। 'सा विद्या या विमुक्तये'——जिससे मुक्ति मिले, वही विद्या है। मुक्ति दो प्रकारकी है। एक मुक्ति वह है जो