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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

देशको पराधीनता से छुड़ाये। वह थोड़े समय के लिए होती है। दूसरी मुक्ति सदाके लिए है। मोक्ष, जिसे परम धर्म कहते हैं, प्राप्त करना हो तो सांसारिक मुक्ति भी अवश्य होनी चाहिए। अनेक भयोंमें रहनेवाला मनुष्य स्थायी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। स्थायी मोक्ष प्राप्त करना हो तो निकटवाला मोक्ष प्राप्त करना ही पड़ेगा। जिस विद्यासे हमारी मुक्ति दूर जाती है, वह विद्या त्याज्य है, वह विद्या राक्षसी है, वह विद्या धर्मविरुद्ध है। सरकारी विद्यालयमें मिलनेवाली विद्या कैसी भी हो, त्याज्य है एवं राक्षसी सरकार द्वारा मिलनेके कारण तो सर्वथा त्याज्य है।

विद्यार्थी माँ-बापके साथ कैसा बरताव करें अब मैं विद्यार्थियोंसे इस बारेमें कुछ कहूँगा। उनको आज्ञाका उल्लंघन करें या न करें। उनकी आज्ञाका सुन्दर रूपमें पालन करता तुम्हारा परम धर्म है। परन्तु तुम्हारा अन्तर्नाद माता-पिताकी आज्ञासे भी बढ़कर है। तुम्हारा अन्तर्नाद तुमसे यह कहे कि माँ-बाप के वचन केवल दुर्बलताके ही [सूचक] हैं, सरकारी पाठशाला छोड़ने में तुम्हारा पुरुषार्थ है, तो माता-पिताकी आज्ञाका उल्लंघन करके भी तुम सरकारी पाठशाला छोड़ दो। परन्तु यह अन्तर्नाद कौन सुन सकता है? मैंने पहले कई बार कहा है, वही फिर कहता हूँ कि जिस मनुष्यमें विनय भरी हो, जो सदा आज्ञापालन करता रहा हो, जिसने नीति-नियमोंको समझ लिया हो और उनका पालन किया हो, वहीं आज्ञाका उल्लंघन कर सकता है। जो दया-धर्मको अपने जीवनमें प्रधानता देता हो, जिसने ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करके अपनी इन्द्रियोंपर काबू पा लिया हो, जिसने न तो अपने हाथ-पैर मैले किये हों, न मन मैला किया हो, जिसने अस्तेयव्रतका पालन किया हो, जिसने अनेक प्रकारके छल-कपट करके परिग्रह न बढ़ाया हो, वहीं कह सकता है कि मेरे अन्तःकरणकी यह आवाज है। तुम गांधीकी आवाज लेकर अपने माँ-बापके पास न जाता। तुम अपनी ही आवाज लेकर अपने माता-पिताके पास जाना और उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके कहना कि हम आपकी आज्ञाका पालन नहीं कर सकते।

एक विद्यार्थीने मुझसे कहा कि मैंने माँ-बापकी आज्ञाका उल्लंघन करके सरकारी पाठशाला तो छोड़ दी, परन्तु अब वे कहते हैं कि मैं राष्ट्रीय महाविद्यालयमें न जाऊँ। मैंने उससे कहा कि उनकी इस आज्ञाका तुम जरूर पालन करो। माँ-बापका खयाल है कि नये विद्यालयमें मिलनेवाली शिक्षासे नुकसान होगा और शिक्षा प्राप्त करनेसे रोकना चाहें, तो ऐसा करनेका उन्हें हक है मानना पुत्रका धर्म है। जो नई चीज माँ-बापको बुरी लगे, उससे वे सकते हैं। वे मैला उठानेको मजबूर नहीं कर सकते। हरएक विद्यार्थी यह देख ले कि इस मामलेमें उसका फर्ज क्या है और उसके बाद जो अपना कर्त्तव्य लगे, उसका पालन माँ-बाप या सरकारके विरोधके बावजूद करे। ऐसा किये बिना देश ऊपर नहीं उठ सकता।

अब मैं तुमसे बम्बईमें हुई एक घटनाके बारेमें कहता हूँ। वहाँ कुछ विद्यार्थियोंने शर्म-शर्मके नारे लगाये। उन आवाज लगानेवालों में भाई निम्बकर भी थे।[१]बम्बईकी

  1. देखिए "भाषण: विद्यार्थियोंके समक्ष", १४-११-१९२० ।