२६४. पत्र : एल॰ एन॰ साहूको[१]
[१६ नवम्बर, १९२० के बाद]
मैं तुम्हारा पत्र 'यंग इंडिया' में प्रकाशित नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि वह जिस विषयको लेकर लिखा गया है पहले उसकी स्थानीय जाँच-पड़ताल और विशेष खोज-बीन आवश्यक है।
गांधीजी के स्वाक्षरोंमें अंग्रेजी मसविदे (एस॰ एन॰ ७३३५) से।
२६५. अहिंसाकी विजय
असहयोग आन्दोलनके सम्बन्धमें भारत सरकारने जो वक्तव्य[३]जारी किया है, उसे आन्दोलनकी पहली शानदार विजय कहा जा सकता है; क्योंकि सरकारने उसके अहिंसात्मक स्वरूपको ध्यानमें रखते हुए यह निर्णय किया है कि यद्यपि वह इस आन्दोलनको एक असंवैधानिक आन्दोलन मानती है फिर भी फिलहाल किसी भी तरहकी हिसा द्वारा उसका दमन करनेकी परिस्थितिको टाला जाये। सरकार और जनता दोनोंको इस विवेकपूर्ण निर्णयके लिए बधाई दी जानी चाहिए। मुझे जरा भी सन्देह नहीं है कि यदि आन्दोलन सभी तरहकी हिंसासे, चाहे वह क्रियात्मक रूपमें हो चाहे वाणीके रूपमें, मुक्त बना रहता है तो सरकारके लिए दमन कर पाना तो असम्भव होगा ही। वह अपने विरोधमें लोकमतका लगातार बढ़ते चला जाना भी रोक नहीं सकेगी। क्योंकि उस लोकमतके पीछे राष्ट्रीय पैमानेपर सरकारी संरक्षण या मदद त्यागनेके सुनिर्देशित कामोंका बल होगा।
परन्तु वक्तव्यमें सोच-समझकर धमकी भी दी गई है कि यदि नरम विचारोंके नेता असहयोगका आगे बढ़ना रोक नहीं पाते तो यह सम्भव नहीं होगा। इस धमकीके शब्दोंको ज्योंका-त्यों दुहराना अच्छा रहेगा।
वक्तव्यके अन्तमें कहा गया है "अन्ततोगत्वा जन सुरक्षाके अपने उत्तर- दायित्वका ध्यान रखते हुए सरकार उस नीतिपर कबतक कायम रह सकेगी" (अर्थात् दमन न करनेकी नीतिपर), "यह इस बातपर निर्भर होगा कि शान्ति-