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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
प्रिय नागरिकोंको आन्दोलनका प्रसार रोकने और उसके खतरोंको सीमित रखनेके प्रयत्नोंमें कितनी सफलता मिलती है।"

इसका यह अर्थ हुआ कि यदि असहयोगका प्रभाव इस हदतक पड़ता है कि सरकार द्वारा अपने कदम वापस न लेने और भारतके प्रति किये गये अपराधोंपर पश्चात्ताप न करनेपर उसका दृढ़ बना रहना असम्भव हो जाये तो विवेक और तर्ककी जगह सरकार दमनसे काम लेगी। ध्यान देनेसे यह स्पष्ट हो जायेगा कि सरकारको भय हिंसाका नहीं अपने अस्तित्वकी समाप्तिका है। यदि मेरा यह विश्लेषण सही है तो फिर सरकार भारतके लोगों और नरम दलके साथ एक निर्मम खेल ही खेल रही है। यदि उसका अभिप्राय अच्छा है तो उसे पक्के तौरपर यह घोषणा अधिकसे-अधिक स्पष्ट शब्दोंमें करनी चाहिए कि जबतक आन्दोलन अहिंसात्मक रहता है वह उसमें दखल नहीं देगी, फिर चाहे उसकी माँग या परिणति पूर्ण स्वतंत्रता ही क्यों न हो। मुझे इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि यदि हम असहयोगी अपने आन्दोलनको हिंसासे मुक्त रख सकें तो सरकारको आगे-पीछे ऐसी घोषणा करनी ही पड़ेगी। परन्तु यदि अदम्य लोकमतसे मजबूर होकर उसे यह घोषणा करनी पड़ी तो उसमें कोई शोभा नहीं रह जायेगी।

शेष वक्तव्य सरकारकी परम्परागत नीतिके अनुसार ही है। वह सदैवकी तरह झूठी आत्मप्रशंसा और असहयोगियोंके बारेमें गलतबयानियोंसे भरा है। उदाहरणार्थं यह कहना गलत है कि जिनका दमन किया गया था वे अहिंसाके सिद्धान्तसे हट गये थे और इसलिए उनका दमन किया गया। मैं सरकारको चुनौती देता हूँ कि जो लोग गिरफ्तार किये गये हैं वह उनके भाषणों या लेखोंमें हिंसा भड़कानेका एक भी उदाहरण दिखा दे। कभी-कभी प्रतिवादियोंकी भाषा अनर्गल और अतिरंजित भी रही है, परन्तु उनमें से कुछके मुकदमोंका जो ब्यौरा मुझे उपलब्ध है, उससे पता चलता है कि सम्बद्ध वक्ताओंने हिंसाकी सलाह नहीं दी थी। वक्ताओंने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो मैं स्वयं न कहता। यह कहना कि जिन लोगोंको सजा दी गई है, वह इसलिए दी गई है कि "उन्होंने फौज या पुलिसको राजनिष्ठासे च्युत करनेकी कोशिश की थी" बिलकुल गलत है। अलबत्ता भरती होनेवालों से की गई इस सार्वजनिक अपीलको कि वे अन्य देशोंकी स्वतन्त्रताका अपहरण करने के लिए भाड़ैतू सिपाही न बन बैठें, भड़काना माना जाये तो बात अलग है। पंजाबमें विद्रोही सभा सम्बन्धी घोषणा और कुछ असहयोगी अखबारोंके विरुद्ध की गई कार्रवाई इस कथनका स्पष्ट खंडन है कि सरकार

भाषणकी स्वतन्त्रता और समाचारपत्रोंकी स्वतन्त्रतामें, ऐसे समय जबकि भारत स्वशासनके सिद्धान्तको पानेकी दिशामें प्रगति कर रहा है, दखल नहीं देना चाहती।

आन्दोलनके नेताओंके सम्बन्धमें गलतबयानियाँ की गई हैं और उनकी प्राणोत्सर्गकी इच्छाका अभद्रतापूर्वक उपहास किया गया है। मैं इस सबपर ध्यान नहीं देना चाहता। सरकारको मालूम होना चाहिए कि मुझे और अली भाइयोंको यह