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अहिंसाकी विजय

जानकर कितनी राहत मिली है कि कमसे-कम अभी वे हमें कैद नहीं करना चाहते। सभी जानते हैं कि यदि हम कैद कर लिये गये तो हिंसा भड़कने का जबरदस्त खतरा है। मैं जानता हूँ कि यह स्वीकार करना शर्म की बात है। यदि जनता सचमुचमें सशक्त और आत्मनिर्भर होती तो वह हमारी या किसी नेताकी गिरफ्तारीसे बेचैन न होती। जबतक यहाँ सरकारका आतंक छाया हुआ है तबतक यह डर भी हमेशा बना रहेगा कि जब-जब इस दुःखी देशकी जनता उन लोगोंकी मदद और सेवासे वंचित की जायेगी, जिनमें उसे विश्वास है, हिंसा भड़क उठेगी।

सरकारका तीसरा तर्क जो वह अपने आत्मसंयम बरतनेके पक्षमें देती है, देखने सुननेमें बहुत वाजिब जान पड़ता है मगर उसका मंशा भोले-भाले लोगोंको भुलावेमें डालने का है। वह कहती है कि

असहयोग एक ऐसी काल्पनिक और निराधार योजना है जो यदि सफल हो जाये तो उसका केवल यही नतीजा होगा कि देशभर में उपद्रव और राजनैतिक हलचल फैल जायेगी और सचमुच देशमें जिनका कुछ दाँवपर लगा है वे बरबाद हो जायेंगे।

इसी एक वाक्यसे हमें सरकारके शैतानी स्वरूपका परिचय मिल जाता है। उसे यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सफल असहयोगका अर्थ है वर्तमान प्रणालीको अनुशासन और शान्तिपूर्ण ढंगसे समाप्त करना और उसका स्थान उपद्रव और अराजकताको नहीं वरन् प्रथम कोटिकी राजनैतिक प्रणालीको देना है। और यह प्रणाली देशके सारे न्यायोचित हितोंका संरक्षण करेगी जिनमें यहाँ ईमानदारीके साथ रोजी कमानेके इच्छुक यूरोपीय व्यापारियोंके हित भी शामिल रहेंगे। "सच्चे दाँव" का इस तरह उल्लेख भारतकी जनताका जान-बूझकर अपमान करना है इस तरह धनिक वर्गोंको शरारतन उत्तेजित किया गया है कि वे जनताके विरुद्ध सन्नद्ध हो जायें। क्या भारतमें जनताका कोई हित निहित नहीं है? सच कहो तो क्या यही ऐसे लोग नहीं हैं जिनका देश में सच्चा हित दाँवपर है? यदि देशका सर्वनाश हो जाये तो धनिक वर्ग देशसे बाहर चले जानेमें समर्थ है; किन्तु आम जनता सिवाय उस कुछ एक गज जमीनको छोड़कर, जो इस दुःखी देशमें उसके पास है, और कहाँ जा सकती है?

इस वक्तव्यको तैयार करनेवालों को यह कहना शोभा नहीं देता कि "असहयोगकी पुकार तो पूर्वग्रह और अज्ञानको ही सम्बोधित करती है" जबकि वे जानते हैं कि प्रत्येक मंचसे आत्म-बलिदान, आत्मशुद्धि और अनुशासनकी अपील की गई है। इसी तरह सत्याग्रहको गलत ढंगसे प्रस्तुत करना भी एक अशोभन बात है। उस घटनापूर्ण अप्रैल मासमें निःसन्देह कटु अनुभव हुए किन्तु उस समय अधिकारियों द्वारा किये गये कुकृत्योंकी स्मृति तो सदा ताजी बनी रहेगी। भारत यह कभी नहीं भूलेगा कि पंजाबमें एक क्रूर प्रशासकने किस तरह एक निर्दोष और शुद्ध आन्दोलनको मनमाने ढंगसे दबाना चाहा था। उस समयके अत्याचारों और अपने कर्त्तव्यके प्रति जनता जिस आश्चर्यजनक ढंगसे सजग हुई उससे सरकारका सत्याग्रहपर लगाया गया लांछन बिलकुल झूठा सिद्ध हो जाता है।

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