जिसे वे पूरा करना चाहते हैं। थोड़ेसे सरकारी पदोंको प्राप्त करके या विधान परिषदोंके सदस्य चुने जाकर वे जनताकी आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं बना सकते।
आर्थिक पैमानेसे नापें तो हमारी ३५ वर्षोंकी राजनैतिक गतिविधिका विनाशकारी परिणाम ही निकला है। आज भारतकी जनतामें अकाल और बीमारीके दुष्प्रभाव को सहनेकी शक्ति पचास साल पहलेकी अपेक्षा कम है। राष्ट्रके इतिहासके किसी भी युगकी अपेक्षा आज भारतीयोंमें कम पौरुष है।
इस ख्यालसे कि हम सरकारका संरक्षण पाकर अपनी राजनैतिक स्थिति सुधारेंगे, ब्राह्मणेतर नेताओंके सरकारके हाथकी कठपुतली बननेकी सम्भावना है। शक्तिशाली ब्राह्मण-दल आसानीसे इस परिस्थितिको बचा सकता है। यह दल बुद्धिमान है, शक्तिसम्पन्न है और परम्परागत सत्ताकी प्रतिष्ठा उसे प्राप्त है। उनके मनपर विजय पानेके लिए विनय धारण कर सकता है। असहयोग-योजनाको पूरी तरह अपनानेसे यह बात अपने-आप सध सकती है, परन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है।
उस समयतक कटुता तो बनी ही रहेगी जबतक कि ब्राह्मण उन लोगोंकी ओर मैत्रीका हाथ नहीं बढ़ाते जो अपनेको कमजोर महसूस करते हैं और मानते हैं कि उन्हें चोट पहुँचाई गई है। कर्नाटकमें ब्राह्मणेतरोंके प्रति राष्ट्रवादी अखबारों द्वारा अहंकारपूर्ण, चोट पहुँचनेवाली भाषाका प्रयोग किये जानेकी शिकायतें मिली हैं। वैसे भी यह सुना जाता है कि राष्ट्रवादी ब्राह्मण उनको छोटा समझते हैं और उनके साथ ठीक व्यवहार नहीं करते। कम ज्ञान सम्पन्न ब्राह्मणेतर देशभाइयोंको अपने अपेक्षाकृत अधिक ज्ञानसम्पन्न ब्राह्मण भाइयोंसे शिष्टता और सद्भावकी आशा रखनेका अधिकार है। ब्राह्मणेतर जनतामें अभीतक ब्राह्मण-विरोधी द्वेष-भावना नहीं है। मुझे महाराष्ट्रके ब्राह्मणमें विश्वास है और मैं जानता हूँ कि वह ब्राह्मणेतर प्रश्नको हिन्दुत्वकी उस परम्पराके अनुकूल ही सुलझायेगा जो उसे विरासतमें मिली है।
यंग इंडिया, १७-११-१९२०