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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
- किया, जिन्हें श्री गांधी जाहिरा तौरपर इस आन्दोलनमें अपना सिपहसालार कहते हैं। श्री गांधी यदि इसका महत्त्व नहीं समझ सके तो फिर इसमें भी आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि मेरा रुख उनकी समझमें नहीं आया। परन्तु यह एक महत्त्वपूर्ण बात है। स्थान राष्ट्रीय मंच था, अवसर अहिंसात्मक असहयोगके उपदेशका, वक्ता इस आन्दोलनके मुसलमान नेता और उनके भाषणोंका निष्कर्ष यह था कि यद्यपि वे इस हत्याको पार्थिव दृष्टिसे ठीक नहीं समझते किन्तु धार्मिक दृष्टिसे चूँकि मारा गया व्यक्ति एक ईसाई है और हत्यारा मुसलमान है इसलिए वह हत्यारा शहीद है। मैं श्री गांधीसे इस सम्वन्धमें सोचनेकी प्रार्थना करता हूँ कि यदि एक हत्यारेका वर्णन 'शहीद' के रूपमें किया जाये तो उसका इतना-भर अर्थ तो अवश्य है कि जिस हत्याके द्वारा हत्यारा 'शहीद' बन जाता है वह हत्या श्रेष्ठ कार्य है और यह मानकर कि इसके विपक्षमें सूक्ष्म विरोधी भावनाका विचार नहीं करना चाहिए, जनताको जोश दिलानेके लिए 'शहीद' का दृष्टान्त दिया गया ताकि समान धर्मानुयायी यदि उनमें धार्मिक लाभकी आकांक्षा हो तो वे उस मार्गको ग्रहण करें। इस कथनसे हत्याका दोषमार्जन नहीं होता, ऐसा माननेके लिए अत्यन्त तीव्र विवेकबुद्धिकी आवश्यकता है। यद्यपि इस प्रश्नके गुण-दोषपर धार्मिक दृष्टिसे विचार करना मेरा काम नहीं तथापि मेरा विचार है कि इन भाषणोंसे हत्याके दोषको नजरअन्दाज ही किया गया था। नरम शब्दोंमें कहें तो एक साँसमें हत्याको पार्थिव दृष्टिसे गलत कहना और दूसरीमें उसे धार्मिक दृष्टिसे सही बताना, एक हदतक न केवल कपटपूर्ण है वरन् अहिंसात्मक असहयोगके मंचसे बहुत ही अनुपयुक्त है और सो भी इस आन्दोलनके नेताओंके द्वारा। और जब किसी प्रचारके नेता उसके किसी महत्त्वपूर्ण मूल सिद्धान्तका उल्लंघन करते हैं तो मेरी रायमें विरोध करनेवाले अनुयायियोंके लिए दो ही रास्ते हैं——यदि वे अल्पसंख्यक हैं तो विरोध प्रदशित करके अलग हट जायें और यदि बहुसंख्यक हैं तो ऐसे नेताओंको उनके पदसे हटा दें। मैं एक ईसाई होनेके कारण पहली स्थितिमें था और मैंने पहला रास्ता अपनाया। यदि वे वास्तवमें इन भाषणोंको अनुचित मानते हैं और एक बेजा स्थितिकी कोरी शाब्दिक व्याख्या करके उसे कुछ समयतक बनाये नहीं रखना चाहते तो श्री गांधी और जनताको निर्णय करना चाहिए कि उनके खिलाफ क्या कदम उठाया जाये। श्री गांधी मुझसे प्रश्न करते हैं कि 'क्या मैं अब स्वराज्य या पंजाबके लिए राहत नहीं चाहता?" मेरा उत्तर है कि निश्चय ही चाहता हूँ परन्तु यह भी मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि वह ऐसे मुसलमान नेताओंके साथ रहकर प्राप्त नहीं हो सकती जो अवसरवादी हैं और जिन्होंने उस दिन धार्मिक उपदेशकी आड़में हिंसाका उपदेश दिया था। मैं फिर अपनी ही बातको दोहराकर कहता हूँ कि इन परिस्थितियोंमें मेरे लिए एक ऐसे आन्दोलनमें भाग लेते रहना असम्भव है जिसके मुसलमान नेता एक ईसाईकी निर्दय हत्याके बारेमें ऐसे विचार रखते हों।