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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
और स्वतन्त्रता स्थापित हो जाती है, तो वह परिवर्तन एक घंटे भी नहीं टिकेगा। क्योंकि जैसा हमारे सम्माननीय कविगुरु ठाकुर "राष्ट्रीयता" पर लिखी अपनी पुस्तकमें कहते हैं, "इस देशमें सामाजिक दासताकी बालूपर स्थायी राजनैतिक स्वतन्त्रताकी इमारत नहीं उठाई जा सकती।" वे आगे चलकर कहते हैं कि "इस देशकी सच्ची समस्या सामाजिक है न कि राजनैतिक"। मैं जानता हूँ कि आप भी कुछ समय पहले यही राय रखते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि यहाँ अपने कामके प्रारम्भिक कालमें आपके एक भाषणमें मैंने पढ़ा था कि यदि हम भारतीय केवल अपने आन्तरिक दोषों और सामाजिक पिछड़ेपनको दूर कर दें तो स्वायत्त शासन हमारे बिना माँगे और बिना प्रयत्न किये हमें सुलभ हो जायेगा। मुझे बहुत ही खेद है कि उसके बाद आपने अपनी राय बदल दी है। मैं इसे किसी राष्ट्रीय आपत्तिसे कम नहीं मानता। परन्तु मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि हममें से जो लोग अब भी वही विचार रखते हैं उन्हें आप गलत न समझें। बात यह है कि वे अब भी हृदयसे यह राय रखते हैं। इसीलिए लाखों दलितों और मद्रास तथा दक्षिणके ब्राह्मणेतरोंने, जो उन भागोंकी आम जनताका प्रतिनिधित्व करते हैं, आपके इस राजनैतिक असहयोग आन्दोलनके विरुद्ध इतनी दृढ़तासे विरोध प्रकट किया है। यह उनकी रायमें उलटी गंगा बहाने जैसा है। वे जहाँ जन्मे हैं उस देशके प्रति गद्दार नहीं हैं; जैसा कि लगता है आप सोचते हैं। मैं उन्हें जिस रूपमें जानता हूँ आप उन्हें उस रूपमें नहीं जानते; इसलिए मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि वे आपसे कम सच्चे नहीं हैं और उनमें देशभक्ति भी कम नहीं है। वे पूर्णतया विश्वास करते हैं कि फिलहाल तो ब्रिटिश राज ही सबसे अच्छा है और यदि आप कल स्वतन्त्रता स्थापनमें सफल भी हो जायें और यदि वह जातिकी शिलासे टकराकर चकना-चूर नहीं भी हो जाती, जैसा कि हमारे लम्बे और बहुविध इतिहासमें कई बार हुआ है, तो भी वह थोड़े ही दिनोंमें अफगानों या जापानियोंके हाथों छिन जायेगी। इसलिए वे भारत प्रजातन्त्र बने, इसके पहले प्रजातन्त्रके सुरक्षित रहनेकी परिस्थिति पैदा करना चाहते हैं; ताकि वह भीतरी और बाहरी शत्रुओंसे भी सुरक्षित रह सके। इसीलिए वे आन्दोलनमें शरीक होनेके आमन्त्रणके लिए आपको धन्यवाद देते हैं; किन्तु यदि आप उसे बन्द कर दें और स्थायी रूपसे भारतको प्रजातन्त्रके योग्य स्थान बनानेके उनके उदात्त प्रयत्नोंमें शामिल हो जायें तो वे आपको और भी अधिक धन्यवाद देंगे। "गुलामोंके गुलाम" और "बड़ेमें कम तो शामिल हो है", ऐसी शब्दावलि निःसन्देह चतुराईपूर्ण शब्दप्रयोग हैं। और सम्भव है कि छिछले किस्मके लोग उनके भुलावेमें आ जायें परन्तु सभी व्यावहारिक बुद्धिवाले लोगोंको वह छिछला प्रतीत होता है। और यह कहना न तो सही है और न उचित कि यदि आप लाखों दलित-