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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/५४०

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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वाले दरबारों या इसी प्रकारके अन्य समारोहोंके अवसरपर शिष्टमण्डलों तथा सभाओंका संगठन, ताकि जिन लोगोंके उन समारोहोंमें जानेकी सम्भावना है उनपर वैसा न करनेके लिए जोर डाला जा सके——चाहे फिर ये समारोह किसी सरकारी अधिकारीके स्वागतके लिए सरकार, स्थानीय समिति, संघ या किसी व्यक्तिने निजी तौरपर ही क्यों न किये हों। स्थानीय समितियों, संघों या अलग-अलग व्यक्तियोंसे यह निवेदन करनेके लिए भी कि वे किसी सरकारी अधिकारीका अभिनन्दन न करें और न उनके स्वागतमें कोई समारोह ही करें, शिष्टमण्डलों तथा सभाओंका संगठन होना चाहिए।

३. सरकारी विद्यालयों तथा महाविद्यालयोंका धीरे धीरे बहिष्कार।

इस धारामें प्रयुक्त 'धीरे-धीरे' शब्दकी रिपोर्टमें दी गई व्याख्याको मैं स्वीकार नहीं कर सकता। मैं यह समझनेमें असमर्थ हूँ कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी विद्यालयों और महाविद्यालयोंसे लड़कों और लड़कियोंको तुरन्त हटा लेनेकी सलाह कैसे दे सकती है जबकि उक्त धारामें उसीने स्वयं 'धीरे-धीरे' शब्दका प्रयोग किया है। श्री गांधीकी प्रस्तावित मूल धारामें यह शब्द नहीं था। मेरे विचारमें कांग्रेसके प्रस्तावके इस भागपर अमल करनेके लिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीके पास केवल ये दो उपाय हैं: (१) विद्यालयों और महाविद्यालयोंसे बालक-बालिकाओंको हटानेके लिए प्रचार तथा साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओंकी स्थापना। इस प्रकारके प्रचारके लिए विशाल धनराशि तथा निरन्तर प्रयत्न करनेकी आवश्यकता होगी और फिर भी, मुझे डर है यह सम्भव नहीं होगा कि दीर्घ कालतक इसका कोई निश्चित परिणाम निकले। (२) किसी चुने हुए क्षेत्रमें, उदाहरणके लिए बम्बई महाप्रान्तके गुजरात क्षेत्रमें, राष्ट्रीय शिक्षाकी स्थापनाकी दिशामें प्रयोग करनेके लिए अपने सारे प्रयत्न केन्द्रित करना तथा साथ ही विद्यालयों तथा महाविद्यालयोंसे बालक-बालिकाओंको हटा लेना। इस योजनाके अन्तर्गत उचित समय के अन्दर निश्चित परिणाम उपलब्ध करना सम्भव है। और यदि यह प्रयोग सफल हो गया तो भारतके दूसरे भाग भी इस उदाहरणका अनुसरण करेंगे।

४. ब्रिटिश न्यायालयोंका बहिष्कार।

यहाँपर भी रिपोर्टमें 'धीरे-धीरे' शब्दका जो अर्थ किया गया है मैं उसे स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं हूँ। पहले अपने विवाद पंचनिर्णयको सौंपनके औचित्यके बारेमें जनताको बतानेके लिए देशभरमें जबरदस्त प्रचार तथा साथ ही पंच फैसला करनेवाले न्यायालयोंकी स्थापना की जानी चाहिए; इसमे ब्रिटिश न्यायालयोंसे वकीलोंके तुरन्त हट जानके विषयमें किये जानेवाले प्रचारकी अपेक्षा अधिक अच्छे परिणाम निकलेंगे। इससे भी अच्छे परिणाम प्राप्त करनेके लिए मैं सिफारिश करूँगा कि इस दिशामें हमारे प्रयत्न कुछ चुने हुए क्षेत्रोंमें ही केन्द्रित होने चाहिए और जहाँतक सम्भव हो इस प्रयोगको सम्पूर्ण रीतिसे करना चाहिए। इस बीच देशके सभी वकीलोंसे कहना चाहिए कि वे अपनी आयका एक अंश राष्ट्रीय निधिमें दें। इस निधिसे उन वकीलोंकी सहायता की जा सकती है जो अपनी वकालत छोड़कर अपना सारा समय सार्वजनिक कार्योंमें लगाना चाहते हैं।