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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/५७

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गुजरातका कर्त्तव्य

वस्तुतः सही हों तो भावनाओंके इतने उद्वेलित हो जानेके बाद लोग उपाय खोजे बिना नहीं रह सकते। एक अंग्रेजी कहावत है कि 'आवश्यकता आविष्कारकी जननी है'। मेमनोंमें कहावत है 'मामलामां माटी' अर्थात् आपत्तिमें वीर पुरुष पैदा होते हैं। मामला अर्थात् संकट मनुष्यको उससे मुक्ति पानेकी राह दिखाते हैं; संकटमें पड़कर ही मनुष्य माटी (मर्द) बनता है। हमारे ऊपर यदि सचमुच संकट है, हमारे विशेषण यदि हमारी स्थितिका सही चित्रण करते हैं तो हमें उसका उपाय क्यों नहीं सूझता?

पंजाबका दुःख 'असह्य' है, ऐसा हमने अनेक बार कहा है। असह्य वेदनासे पीड़ित मनुष्य क्या करता है? बिच्छूसे काटा गया व्यक्ति विष उतरवानके लिए अनेक उपचार करता है और उससे भी अगर आराम नहीं होता तो मृत्युको प्राप्त होता है। हमें असह्य कष्ट तो है पर हम मरनेकी शक्ति भी खो बैठे हैं। ऐसी हालतमें 'टाइम्स' हमारी हँसी क्यों न उड़ाये?

शास्त्रोंने असन्तोंका त्याग करनेका सुझाव दिया है। हममें असन्त श्री ओ'ब्रायन, श्री स्मिथ तथा श्रीरामका त्याग करने-जितनी हिम्मत भी नहीं है।

जो सरकार वचन देकर उसे तोड़ देती है, उसका त्याग करना अनादि कालसे चला आ रहा एक उपचार है। हमें अपने इतिहासमें ऐसे अनेक उदाहरण सहज ही मिल जाते हैं, जब राजाके अत्याचारसे पीड़ित हो जनताने राजाका त्याग कर दिया हो। जनताको रूठ जानेका अधिकार है।

यूरोप में दुष्ट राजाका जनता हनन कर देती है। हिन्दुस्तानमें जब जनता अकुला जाती है तब वह उसका राज्य छोड़कर चल देती है। मेरे द्वारा सुझाया गया असहकार इसकी अपेक्षा हलका त्याग है। सर्वथा त्याग करना यह असहकारकी पराकाष्ठा है। हम रूठना भी भूल गये हैं।

यदि ऐसा हो तो यह हमारी अधम स्थितिका परिचायक है। जब गुलाम अपनी गुलामीको भूल जाये तब उसे बन्धनमुक्त करनेका उपाय नहीं बच रहता।

जिन दो अन्यायोंका सरकार आज हठपूर्वक समर्थन कर रही है उनसे अधिक घोर अन्य कोई अन्याय हो ही नहीं सकता। उनके होते हुए भी यदि हम व्याकुल नहीं होते तो इसमें सरकारका दोष नहीं है, अपितु बोलचालमें यही कहा जायेगा कि 'हम इसी लायक हैं।'

ऐसे कठिन समयमें मैं असहकारके जिस स्वरूपको गुजराती जनताके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ उसपर गंभीरतापूर्वक विचार करना जनताका कर्त्तव्य है। गुजरात इस कार्य में अनुकरण नहीं करेगा बल्कि मुझे उम्मीद है कि वह अग्रस्थान ग्रहण करके अनुकरणीय बनेगा।

सहज ही विचार करें तो मालूम होगा कि पदवियों, विधान परिषदों, सरकारी पाठशालाओं और वकालतके धन्धेका त्याग करना कठिन कार्य नहीं है। लेकिन फिलहाल तो हमें विधान परिषदोंका बहिष्कार करनेका निश्चय कर लेना आवश्यक है। गुजरातसे एक भी उम्मीदवार विधान परिषद् में जाने के लिए तैयार न हो तो इसका राजा-प्रजा दोनोंपर जबरदस्त प्रभाव पड़ेगा।