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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/६१

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शुद्ध स्वदेशी

बनिस्बत सूत अधिक आयेगा और हम जहाँके-तहाँ बने रहेंगे। इससे सूतके दाम भी बढ़ जायेंगे और हम बुनाईकी लागतमें कुछ बचत कर लेंगे, यह मानना भी ठीक सिद्ध नहीं होगा। यह दृष्टि स्वदेशीकी दृष्टि नहीं है।

स्वदेशीकी हमारी कल्पनामें धर्म और अर्थकी रक्षा सन्निहित है। अपने ही पड़ोसियोंको, अपने भाई-बहनोंकी सेवा न करके उनके मुँहका कौर छीनकर दूसरोंके मुँहमें डालना परमार्थ नहीं है, दया नहीं है; यह तो हमारे द्वारा अपना धर्म-क्षेत्र त्याग देनेके समान है। इसलिए हम अपनी कातनेवाली बहनोंको तथा अपने बुनकरोंको प्रोत्साहन देनेके लिए बँधे हुए हैं। इससे हम देशमें भूखसे मरते हुए लोगोंके घरोंमें साठ करोड़ रुपया भेज सकेंगे। इससे अर्थकी रक्षा होगी। एक साथ धर्म और अर्थका रक्षक स्वदेशीका यह व्रत कठिन बिलकुल नहीं है।

इस धर्मका पालन हाथसे सूत कातने और बुनने के द्वारा ही हो सकता है। अतएव स्वदेशोकी सच्ची और पवित्र प्रवृत्ति वही मानी जायेगी जिसके द्वारा अधिक सूत पैदा करके कपड़ा बुना जा सके तथा बेचा जा सके। अतः स्वदेशीके प्रत्येक प्रेमी तथा स्वदेशीकी दुकानें चलानेवालोंको मेरी सलाह है कि वे कातनेवाले लोगोंको जुटाय तथा उनके द्वारा बनाये गये सूतको बुनवाकर उसका प्रचार करें। मैं जानता हूँ कि यह काम मुश्किल है, इसमें [प्रारम्भमें] निराशाकी सम्भावना है। लेकिन मुश्किलोंको मार्गसे दूर किये बिना उन्नतिकी सम्भावना भी नहीं होगी। धवलगिरिका रास्ता असंख्य यात्रियोंकी हड्डियोंसे पटा हुआ है। ढीले-ढाले लोग तो चढ़नेके पहले ही थक जाते हैं; तथापि वहाँ जानेका रास्ता तो वादियों और पहाड़ियोंके बीचसे होकर ही गुजरता है। यदि स्वदेशीका उपक्रम करनेवाले लोग स्वदेशीके तत्त्वको समझकर कार्यको आगे बढ़ायेंगे तो पछताना नहीं पड़ेगा। यदि आप स्वयं ही कातते रहे तो कोई हर्ज नहीं; यदि आपके कातनेसे थोड़े ही लोगोंको कातनेकी प्रेरणा मिली तो भी कोई हर्ज नहीं——हर्ज तो तब है जब स्वदेशीका प्रचार न हो और हम स्वदेशीके नामसे पुकारे जानेवाले उपक्रमसे सन्तोष मान लें। चमचमाता हुआ पीतल स्वर्णका काम नहीं दे सकता; और न ही काँच हीरेका। और जिस तरह काँचको हीरा मान लेनेमें हीरेको प्राप्त करनेकी व्याकुलता नहीं रह सकती उसी तरह झूठे स्वदेशी-तत्त्वको सच्चा स्वदेशी-तत्त्व माननेसे स्वदेशीके प्रचारमें ढील पड़ जायेगी। कुछ लोग सोचेंगे कि यदि सूत पैदा करनेकी ही बात हो तो करोड़ों स्त्रियोंको सूत कातनेकी बात समझानेके स्थानपर दस-बीस मिलें ही क्यों न स्थापित कर दी जायें। इसका समाधान मैं 'नवजीवन'[]में कर चुका हूँ। मिलें आसानीसे खड़ी नहीं की जा सकतीं। मिलोंकी स्थापनाका किसीको अलगसे प्रयत्न करना पड़े सो तो बात ही नहीं है। धनाढ्य-वर्ग मिलोंकी स्थापना करके उनकी संख्यामें वद्धि करता रहता है। मगर मिलोंकी स्थापना करनेका अर्थ उनके लिये आवश्यक यन्त्रोंको विदेशोंसे मँगवाने के लालचमें पड़ना है। इस तरह मिलें बढ़ाते जानेसे करोड़ोंकी भुखमरीका उपचार नहीं मिलता और न प्रत्येक वर्ष करोड़ों व्यक्तियोंमें हम साठ करोड़ रुपया वितरित कर सकते हैं। १,९०० मील लम्बे क्षेत्रमें फैली हुई हिन्दु-

  1. देखिए खण्ड १७, पृष्ठ ३७२-७६ ।