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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्तानकी करोड़ोंकी आबादीकी भुखमरी तबतक दूर नहीं हो सकती जबतक हम उनके लिए खेतीके अतिरिक्त कोई सहायक धन्धा नहीं खोज निकालते, और ऐसा धन्धा [चरखेपर] सूत कातने और उसको कुछ हदतक [हाथ करघेपर] बुननेका ही है। डेढ़ सौ वर्ष पहले यह धन्धा हिन्दुस्तानमें प्रचलित था और उस समय हम आजके समान कंगाल नहीं थे।

[गुजराती से]
नवजीवन, ११-७-१९२०

२२. शान्तिनिकेतन

श्री एन्ड्र्यूज[१]लिखते हैं कि शान्तिनिकेतनमें भवन- निर्माणका कार्य हो रहा है और पैसेकी बहुत तंगी रहती है। कविश्री[२]आजकल वहाँ नहीं हैं तथा उसका मुख्य भार श्री एन्ड्र्यूजपर है।

मुझे लगता है कि कविश्रीके आगमनपर[३]गुजरातने अपना कर्त्तव्य पूरी तरहसे नहीं निभाया। नारों और फूलोंके हारोंसे स्वागत करना शिष्टाचार है; यह कर्त्तव्य पूरा करनेकी शुरुआत है, उसकी चरम परिणति नहीं। यदि हम कविश्रीको अलौकिक पुरुषके रूप में मानते हों, यदि हम उनकी विद्वत्ताका सम्मान करना चाहते हों तो उनके कार्यमें उनकी सहायता करना हमारा धर्म है।

मदद करनेसे पहले सभी मनुष्योंके सभी कामोंकी जानकारी प्राप्त करनेकी हमें आवश्यकता नहीं होती। सम्भव है कि महान् पुरुषोंके कार्य में हमें अपूर्णता दिखाई दे तथापि उनके कार्यमें मदद करना हमारा कर्त्तव्य है।

पंडिता रमाबाईकी[४]प्रवृत्तियोंके सम्बन्धमें शायद ही हम लोग कुछ जानते हैं। उक्त महिला अकेली ही अमेरिकासे प्राप्त पैसेकी सहायतासे अपना काम चला रही हैं। वे ईसाई हैं इसलिए हम उनके कार्यों में दिलचस्पी नहीं लेते। वे हमारे पास मदद माँगनेके लिए भी नहीं आतीं। और नहीं आतीं सो ठीक ही करती हैं। उनके कार्योंके पीछे ईसाई धर्मका प्रचार करनेका उद्देश्य निहित है और यह बात अमरीकियोंको पसन्द है। पण्डिताके सब कार्योंको वे लोग देखने नहीं जाते, कदाचित् वे पसन्द भी न करें। तथापि पण्डिताका उद्देश्य ही उनके लिए पर्याप्त है और इसीलिये उनमें से कुछ लोग उनके द्वारा स्थापित बड़ी संस्थाका ज्यादातर खर्चा उठा रहे हैं।

  1. चार्ल्स फ्रीयर एन्ड्र्यूज (१८७१-१९४०); ब्रिटिश मिशनरी, गांधीजी और रवीन्द्रनाथ ठाकुरके सहयोगी; 'दीनबन्धु' के नामसे विख्यात।
  2. रवीन्द्रनाथ ठाकुर (१८६१-१९४१); कवि और कलाकार, इन्हें १९१३ में अपनी काव्य-पुस्तक गीतांजलिपर नोबेल पुरस्कार मिला था; विश्वभारती विश्वविद्यालय, शान्तिनिकेतनके संस्थापक।
  3. अप्रैल १९२० के प्रथम सप्ताहके दौरान रवीन्द्रनाथ ठाकुर गुजरात आये थे; देखिए खण्ड १७, पृष्ठ ३३९ ।
  4. १८५८-१९२२; ईसाई मिशनरी, संस्कृतकी प्रकाण्ड पण्डिता, समाज-सुधारक और शिक्षा-शास्त्री।