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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/६४

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२३. जूनागढ़का पागलपन

जूनागढ़के बहाउद्दीन कालेजके सिंधी विद्यार्थियोंको वहाँके नवाब साहबने कालेजसे निकलवा दिया——यह खबर अब पुरानी हो चुकी है। साठ विद्यार्थियोंको अकारण ही चौबीस घंटेके भीतर कालेजसे निकाल देना और गाड़ीमें बैठाकर रवाना कर देना पागलपनकी ही निशानी माना जायेगा। यह पागलपन हमें पंजाबके सैनिक शासनकी याद दिलाता है।

तुरन्त ही यह सवाल सामने आ जाता है कि क्या इस कदमके पीछे ब्रिटिश सरकारका कोई असर है। नवाब साहब कोई कारण बताते नहीं जान पड़ते, इसलिए निश्चयपूर्वक कुछ कहना कठिन है।

अगर नवाब साहबने अपनी ही इच्छासे यह कदम उठाया हो तो इसका मतलब है, देशी रजवाड़ोंके अधीन रहनेवाले लोग ब्रिटिश सरकारकी अधीनस्थ प्रजासे भी अधिक दुःखी हैं।

देशी राजाओंकी स्थिति मात्र दयनीय ही कही जा सकती है। वे तो स्वयं ही ब्रिटिश सरकारकी प्रजा है। उनकी सत्ता और सम्पत्तिका आधार तो केवल ब्रिटिश साम्राज्य है और उसीकी बदौलत वह सुरक्षित भी रह सकती है। ऐसे पराधीन राजाओंके अधीन रहनेवाली प्रजा दोहरी दासतामें रहती है और इसलिए अक्सर उसे दोहरा नुकसान भी उठाना पड़ता है।

लेकिन यह अवसर इन सवालोंपर विचार करनेका नहीं है कि नवाब साहबकी इस कार्रवाईके लिए कौन जिम्मेदार है, देशी रजवाड़ोंकी प्रजाको क्या अधिकार प्राप्त हैं और उनकी दशा कैसे सुधारी जाये। हमारे सामने इस सबपर विचार करने के लिए पर्याप्त तथ्य भी नहीं हैं।

लेकिन अब एक बड़ा सवाल यह उठता है कि अपने साथियोंके प्रति काठियावाड़के विद्यार्थियोंका क्या फर्ज है। काठियावाड़के लोग शारीरिक दृष्टिसे काफी मजबूत हैं, बहादुर भी माने जाते हैं। उनकी सहन-शक्तिकी प्रशंसा की जाती है। फिर क्या काठियावाड़के विद्यार्थी अपने सिन्धी साथियोंका अपमान चुपचाप पी लेंगे? मुझे तो लगता है कि अगर सिंधी विद्यार्थियोंको फिरसे कालेजमें बुला नहीं लिया जाता तो काठियावाड़ी विद्यार्थियोंका स्पष्ट कर्त्तव्य है कि वे भी कालेज छोड़ दें।

अब इसपर शायद यह कहा जाये कि ऐसा करनेपर इन बेचारे विद्यार्थियोंकी पढ़ाईका हर्ज होगा। मैं तो कहूँगा कि ऐसे अवसरपर तो कालेज छोड़ देनमें ही उनकी सच्ची पढ़ाई——सच्ची शिक्षा है। जो शिक्षा हमें स्वाभिमानका पाठ नहीं पढ़ाती वह शिक्षा किस कामकी? प्रसंग आनेपर स्वयं कष्ट सहकर भी अपने साथियोंके सम्मानकी रक्षा करनी चाहिए। अन्यायके विरुद्ध उनकी रक्षा करनेमें ही पुरुषार्थ है।

हमें सबसे पहले मनुष्य बनना सीखना है। अक्षरज्ञानका पात्र भी मनुष्य ही होता है। जिसने मनुष्यता खो दी उसे किताबो शिक्षा देने से क्या फायदा? अक्षरज्ञानसे