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पत्र : अखबारोंको

मनुष्यता नहीं आती। फिर कालेजके विद्यार्थियोंको बच्चा नहीं कहा जा सकता। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे उचित-अनुचितके सम्बन्धमें खुद ही नहीं सोच सकते। इसलिए मुझे आशा है कि अगर सिंधी विद्यार्थियोंके साथ न्याय नहीं किया गया तो बहाउद्दीन कालेजका हरएक काठियावाड़ी विद्यार्थी कालेज छोड़ देगा।

फिर, लोग यह पूछ सकते हैं कि उसके बाद क्या होगा। सम्भव है कि इन विद्यार्थियोंको दूसरे कालेज भी प्रवेश न दें। अगर प्रवेश देनेको तैयार भी हों तो उनके पास शायद फीस देनेके लिए पैसे न हों। लेकिन कालेज छोड़नेका महत्त्व तो इन कठिनाइयोंको झेलने में ही है। अगर कालेज भी घास-पातकी तरह उगते होते तो उनका कोई महत्व नहीं रहता और फलतः सिन्धी विद्यार्थियोंको निकाला भी नहीं जाता।

जो विद्यार्थी कालेज छोड़ दें, वे मेहनत करके घरपर ही पढ़ाई कर सकते हैं। उनकी मुफ्त शिक्षाका भी प्रबन्ध हो सकता है। आजकल ऐसे परमार्थी शिक्षक मिल जाना बहुत कठिन नहीं है जो इस तरहके विद्यार्थियोंको मदद देनेके लिए बेहिचक तैयार हों। अगर विद्यार्थी सिर्फ अपना प्राथमिक कर्त्तव्य निभायें तो उन्हें इस अन्यायके प्रतिकारका मार्ग सूझ जायेगा। जो कर्त्तव्य सामने आ जाये उसे निभाते हुए भविष्यकी चिन्ता न करना—यही निष्काम कर्म है, यही धर्म है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ११-७-१९२०

२४. पत्र : अखबारोंको[१]

[११ जुलाई, १९२०][२]

श्री मो॰ क॰ गांधी अखबारोंको लिखते हैं:
मुझे जोहानिसबर्गसे निम्नलिखित तार मिला है:

दादू बनाम क्रूगर्सडॉर्प नगरपालिकाके मामलेमें अपील अदालतने एशियाई कम्पनियों द्वारा अचल सम्पत्ति रखनेकी वैधता स्वीकार कर ली है। न्यायपीठके सदस्य न्यायमूर्ति रोज़ इन्स, सॉलोमन, मार्सडॉर्प, जूटा और डी'विलियर्स थे। सिर्फ न्यायमूर्ति डी'विलियर्सने ही विपक्षमें निर्णय दिया।

इस तारका मतलब यह है कि हमारे दक्षिण आफ्रिकावासी त्रस्त देशभाइयोंको बहुत राहत मिली है। स्मरण होगा कि ट्रान्सवालके उच्च न्यायालयने भारतीय कम्पनियों द्वारा अचल सम्पत्ति रखना कानूनी जालसाजी बताते हुए उनके विरुद्ध निर्णय दिया था। अपील अदालतका विचार स्पष्टतः इससे भिन्न है और उसने इस भारतीय

  1. दक्षिण आफ्रिकी न्यायालयके निर्णयपर।
  2. १८ जुलाई, १९२० के गुजरातीके अनुसार गांधीजीने यह सन्देश इसी तारीखको जारी किया था।